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ईश्वर प्रेरित वेदों के पृथिवी सूक्त में वर्णित प्राचीनतम स्तुत्य विचार

ओ३म्

वेद क्या हैं? वेद सृष्टि की रचना करने व चलाने वाले ईश्वर का नित्य ज्ञान है जिसे वह सृष्टि के आरम्भ चार पवित्रात्मा ऋषियों को उनकी हृदय गुहा में धियो यो प्रयोदयात्’ की भांति प्रेरणा द्वारा प्रदान करते हैं। सम्प्रति वेद सम्वत् वा सृष्टि सम्वत् 1,96,08,53,116 चल रहा है। इतने वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हो गये हैं। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद हैं जिनके विषय ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। वेदों में अनेक प्रसिद्ध सूक्त हैं। वेदों के पुरूष सूक्त पर हम एक विवरणात्मक लेख प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख में हम अथर्ववेद के बारहवें काण्ड जिसे पृथिवी सूक्त’ के नाम से पुकारा जाता है, इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सम्पूर्ण सूक्त को पृथिवी सूक्त कहे जाने का मुख्य कारण इसके सभी 63 मन्त्रों का देवता वा विषय भूमि” होना है। इस समस्त सूक्त में ईश्वर ने सार रूप में मनुष्यों को बहुत उत्तम शिक्षा दी है। सभी मन्त्रों के भावार्थ हम कुछ समय पश्चात एक पृथक लेख में प्रस्तुत करेंगे। सम्प्रति अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त के विषय में पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय विद्यामार्तण्ड जी के अथर्ववेद भाष्य के अनुसार सूक्त का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

अथर्ववेद काण्ड 12 सूक्त 1 को पृथिवी सूक्त कहते हैं। इस काण्ड में उन उपायों का वर्णन हुआ है जिनसे समग्र पृथिवी का धारण और पोषण हो सकता है। यह सूक्त राष्ट्रपरक नहीं मानना चाहिये। इस कारण की राष्ट्र तो पृथिवी के अंगरूप हैं। राष्ट्र समग्र पृथिवी रूप नहीं है। वेदों के इस पृथिवी सूक्त में पृथिवी को माता कहा है। यह उल्लेखनीय है कि पृथिवी समग्र-पृथिवीरूप में तो माता हो सकती है परन्तु किसी अंगविशेष रूप में नहीं। ऐसा ही सर्वत्र विश्व के बारे में कह सकते हैं। माता, समुचित-शरीररूप में माता होती है, हाथ-पैर-पेट-टांग आदि अलग-अलग अवयवरूप में नहीं। सूक्त के मन्त्र 10 व 12 में भूमि को माता कहा गया है। इन दोनों मन्त्रों के भावार्थ भी हम इस लेख के अन्त में प्रस्तुत कर रहे हैं। पृथक्-पृथक् राष्ट्रों में मातृभावना के कारण परस्पर युद्ध होते हैं और एक राष्ट्र समृद्ध तथा दूसरा निर्धन बना रहता है। इस लिये मन्त्र 12/1 में हमें यह उपदेश मिला है कि समग्र-पृथिवी के सम्बन्ध में समग्र प्रजाजनों की मातृभावना होनी चाहिये तथा समग्र-पृथिवी की समुन्नति में सब को मिल कर यत्नशील होना चाहिये। यह नहीं होना चाहिये कि मन्त्र 12/1 में राष्ट्रभावना का परित्याग है अपितु इस सूक्त में यह दर्शाया है कि राष्ट्रभावना और सार्वभामभावना में परस्पर समन्वय होना चाहिये, परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये।

पृथिवी सूक्त में विशिष्ट भावनायें निम्नलिखित हैंः

1              बृहत्सत्य, कड़े नियम, पृथिवीमाता की समुन्नति के लिये व्रत (दीक्षा), तपोमय जीवन, आस्तिकता तथा शासन में ब्राह्मणत्व का प्राधान्य, द्रव्ययज्ञों का करना, देवकोटि के लोगों की पूजा, उन का सत्संग तथा उन के प्रति दान–पृथिवी का धारण और पोषण करते हैं। (मन्त्र 12/1)

2              पृथिवी विश्वम्भरा तथा विश्वधायस् है अर्थात् सब का भरण-पोषण करने वाली तथा सब की धाया है (मन्त्र 6 व 27)। इस का मुख्य शासक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति होना चाहिये (इन्द्रऋषभा) तथा अन्य राज्याधिकारी देवकोटि के तथा अप्रमादी होने चाहियें (मन्त्र 6 व 7)।

3              प्रजाजनों तथा अधिकारियों के हृदय परमेश्वरार्पित तथा सत्य से आवृत्त होने चाहियें (मन्त्र 8)।

4              प्रजाजनों को मधुरभाषी होना चाहिये (मन्त्र 16)

5              पृथिवी असितज्ञू” अर्थात् बन्धन को न जानने वाली स्वातन्त्रयप्रिया है (मन्त्र 21)। अत्याचारियों तथा आततायियों को पृथिवी कम्पा फेंकती है (मन्त्र 57)।

6              समग्र पृथिवी को माता जान कर इसे नमस्कार करना चाहिये, इसके प्रति नतमस्तक होना चाहिये (मन्त्र 26)।

7              प्रजाजन पवित्र विचारों द्वारा अपने-आप को पवित्र तथा उत्कृष्ट बनाते रहें (मन्त्र 30) ताकि इनका पतन न हो (मन्त्र 31)।

8              पृथिवी पर महावध तथा महाघाती शस्त्रास्त्र न होने चाहियें (मन्त्र 32)।

9              पृथिवी परम-ऐश्वर्य वाले व्यक्ति का, शासक रूप में, वरण करती है, वृत्र वा दुष्ट का नहीं (मन्त्र 37)।

10           पृथिवी पर नाचना, गाना आदि भी होते रहने चाहियें (मन्त्र 41)।

11           दिव्यकोटि के शिल्पियों द्वारा नगरों का निर्माण करना चाहिये (मन्त्र 43) तथा दिशाओं को रमणीय बनाना चाहिये।

12           भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों तथा नाना धर्मियों को एक परिवार के सदृश परस्पर प्रेमपूर्वक रहना चाहिये (यथौकसम्, मन्त्र 45)।

13           पृथिवी पर के सभी मार्ग भद्र और पापी दोनों के विचरने के लिए है (मन्त्र 47)।

14           पृथिवी माता के सब पुत्रों-पुत्रियों को पृथिवी माता को सम्पत्ति के भोग में समानाधिकार है (मन्त्र 60)।

15           राज्य-कर स्वेच्छापूर्वक देना चाहिये (मन्त्र 62)। मधुर बोलो, सत्यासत्य की परीक्षा कर के बोलो (मन्त्र 58)।

हम समझते हैं पाठक पृथिवी सूक्त में वर्णित उपर्युक्त संकेतों को जानकर अवश्य ही सृष्टि के आदि ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहेंगे। ऐसे पाठकों की सुविधार्थ निवेदन है कि चारों वेदों के 20,500 से अधिक मन्त्रों का सरल हिन्दी में किया गया पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी का विस्तृत भाष्य अल्प मूल्य रूपये 3,100 (तीन हजार एक सौ रूपये मात्र) में वैदिक साहित्य के प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य, मैसर्स श्रीघूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डौन सिटी (राजस्थान)-322230 से दूरभाष संख्या 09414034072 अथवा 09887452959 (प्रेषण व्यय अतिरिक्त) पर सम्पर्क कर मंगाया जा सकता है। हम यह अनुभव करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की वाणी-वेदवाणी को श्रद्धार्थ अपने निवास पर रखना चाहिये। इसके दर्शन करने वा कराने चाहिये और नियमित रूप से इसका स्वाध्याय करना चाहिये। यह अति-पुण्यदायक व सौभाग्यवर्धक है। महर्षि दयानन्द ने वेदों को पढने वा पढ़ाने तथा सुनने व सुनाने को धर्म नहीं अपितु परम धर्म की संज्ञा से विभूषित किया है। आईये, हम अपने परमधर्म का पालन करने का व्रत लें। यह भी जानना महत्वपूर्ण हैं कि यदि हम वेदों का नियमित स्वाध्याय नहीं करेंगे तो हम ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण से कदापि उऋण नहीं हो सकेंगे जिसके लिए हमें ईश्वर की व्यवस्था से दण्ड भोगना ही होगा।

पृथिवी सूक्त के मन्त्र क्रमांक 10 व 12 निम्न हैं:

यामश्विनावमिमातां विष्णुयस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः।।10।।

यत्ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संवभूवुः। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता नः पिपर्तु।।12।।

पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार कृत भावार्थः सूर्य और चन्द्र से इस पृथिवी का मानो मापन हो रहा है। मापन से यहां यह अभिप्राय है कि पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए सूर्य व चन्द्र मानो पृथिवी को माप ही रहे हैं। इन सूर्य-चन्द्र के द्वारा सर्वव्यापक प्रभु पृथिवी पर विविध वनस्पतियों को जन्म दे रहे हैं। यह पृथिवी शक्ति व प्रज्ञान के स्वामी जितेन्द्रिय पुरूष की मित्र है। यह भूमि हम पुत्रों के लिए आप्यायन के साधनभूत दुग्ध आदि पदार्थों को दे। वेद के शब्दों सा नः भूमिः मे पयः विसृजताम् माता पुत्राय’ में कहा गया है कि हमारी भूमिमाता मेरे लिए दूध दे जैसे कि माता पुत्र के लिए दुग्ध देती है। यहां पुत्र शब्द पुत्र व पुत्रियों दोनों के लिए अभिप्रेत है। 12 हवें मन्त्र का भावार्थ है कि पृथिवी के मध्य व केन्द्र में शतशः स्वर्णादि धातुएं स्थपित हैं। पृथिवी के शरीर से ही सब अन्न-रस आदि की उत्पत्ति होती है। यह भूमि माता इनके द्वारा हमारा पालन करती है। भूमि हमारी माता है तथा पर्जन्य (वर्षा करने वाले बादल) पिता है । यह मेरा पालन करते हैं। इस मन्त्र में माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्या।’ लोक प्रसिद्ध सूक्ति आई है। इसका अर्थ सरल व सुबोध है। इसमें कहा गया है कि यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथिवी का पुत्र हूं। इन दोनों मन्त्रों पर पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय जी की टिप्पणियां भी अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि दिन-और-रात चक्कर लगा रहे हैं मानो भूमि को माप रहे हैं। भूमिः माता = समग्र अखण्डित भूमि माता है, खण्डित भूमियां अर्थात् राष्ट्र, मातृभूमि नहीं कही जा सकी। अखण्डित भूमि का सार्वभौम शासन ही भूमि माता के प्रत्येक पुत्र को दुग्ध आदि पदार्थ प्रदान कर सकता है। दूध पिलाने वाली माता, निज समग्र शरीर रूप में माता है, निज खण्डित अवयवों में माता नहीं। मन्त्र क्रमांक 12 पर टिप्पणी देते हुए पं. विश्वनाथ जी लिखते हैं कि प्रत्येक पृथिवीवासी को चाहिये कि वह पृथिवी को निज माता जान कर पवित्र भावना से पृथिवी माता की सेवा तथा रक्षा करने में तत्पर रहे। पृथिवी माता है, इस के पार्थिव अंशों से प्रत्येक का शरीर बना है तथा यही माता खाद्य-पेय पदार्थ दे कर हमारी रक्षा कर रही है। इस पृथिवी माता में पर्जन्य अर्थात् मेघ निज जल रूपी वीर्य सींचता है, इस लिये पर्जन्य पिता है। इस के जल रूपी वीर्य से अन्नोत्पत्ति तथा पीने के लिये हमें जल प्राप्त होता है। मन्त्र में समग्र अर्थात् अखण्डपृथिवी को माता तथा पर्जन्य को पिता कह कर राष्ट्रिय संकुचित भावनाओं से पृथक् रहने का सन्देश दिया है। निज राष्ट्रिय भावनाओं को सार्वभौम भावनाओं के साथ समन्वित करना चाहिये।

हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख में प्रस्तुत पृथिवी-सूक्त व इसमें ईश्वर प्रदत्त शिक्षाओं से लाभान्वित होंगे एवं वेदों के नियमित स्वाध्याय को अपने जीवन का अंग बनाकर धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्ति में अग्रसर होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

 

10 thoughts on “ईश्वर प्रेरित वेदों के पृथिवी सूक्त में वर्णित प्राचीनतम स्तुत्य विचार

  • डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

    पृथिवी सूक्त के अभिप्राय को बहुत सरलता पूर्वक समझाया गया है ..हृदय से आभार आदरणीय !

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद बहिन जी। आशा है कि आप मेरे अन्य लेख भी देखती हों। आपके शब्दों से मेरा उत्साहवर्धन हुआ है। आभार व्यक्त करता हूँ।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .अगर सभी सच्चे दिल से वेदों के सिधान्तों के मुताबक चलें तो स्वर्ग यहीं है , कही ढूँढने की जरुरत नहीं है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      लेख अच्छा लगा, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। स्वर्ग सुख विशेष को कहते हैं। यदि सभी मनुष्य सुखी हो जाएँ तो यह संसार ही स्वर्ग बन सकता है। एक बार महर्षि दयानंद से किसी ने पूछा कि यह संसार स्वर्ग व सुखी कैसे बन सकता है। उन्होंने कहा कि एक भाषा, एक सुख दुःख अर्थात दूसरों के सुख में सभी सुखी और दुःख में सभी दुखी जब होंगे तथा एक धर्म, एक विचार व एक ही समान सोच जब सबकी होगी तो यह संसार सुखी हो सकता है। उनका प्रयास भी इसी के लिए था। उन्हों गहन चिंतन मनन करके संसार के सभी लोगो के लिए जो ठीक समझा था उसे बिना पक्षपात वह प्रचार कर रहे थे। लोगो ने उनको समझने का प्रयास न कर अपने स्वार्थों को ही महत्व दिया। यदि यह संसार ऐसी ही चलने दिया जाएगा तो समस्याएं हल न होने के स्थान पर ऐसी ही बनी रहेंगी या बढ़ भी सकती हैं। अतः इसके लिए तो सोच विचार कर व्यवस्था में सम्पूर्ण परिवर्तन ही करना होगा। महर्षि दयानंद के विचारों से भी सहायता ली जा सकती है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः। वेद मार्ग के अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है, वेद का यह कहना है और यह है भी ठीक। कृपया अपना ईमेल सूचित करने की कृपा करें भावी किसी कमेंट के साथ। हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

  • यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि इस समय जो ‘पृथ्वी बचाओ’ अभियान चल रहा है, उसने इस सूक्त को पूरा का पूरा अपने अभियान के मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अंगीकार किया है.

    • Man Mohan Kumar Arya

      पृथिवी बचाओं अभियान में पुरूष सूक्त के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों को मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में पूरा पूरा स्वीकार किया है, यह पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता और सन्तोष हुआ। कृपया सूचित करें कि इस विषय में अधिक जानकारी क्या नैट पर उपलब्ध है। यदि लिंक सूचित कर सकें तो आभारी होऊगां। सादर धन्यवाद।

      • विजय कुमार सिंघल

        इसका विस्तृत समाचार भारत के कुछ समाचार पत्रों में आया था. खोजकर इसका लिंक दूंगा.

        • Man Mohan Kumar Arya

          धन्यवाद महोदय। मैं भी प्रयास करता हूँ। यदि सफलता मिलती है तो आपको सूचित करूँगा।

  • बहुत सुन्दर लेख ! अत्यंत आभार मान्यवर, मेरे आग्रह का मान रखने के लिए. सम्पूर्ण पृथिवी सूक्त तो लम्बा होता, परन्तु आपने इस लेख में उसका सार निचोड़कर रख दिया है. इसके लिए हार्दिक धन्यवाद !

    • Man Mohan Kumar Arya

      धन्यवाद महोदय। आपके शब्दों की शक्ति से मैं प्रेरित हुआ और जैसा बन पड़ा लेख लिख दिया। कुछ ही दिनों में सभी 63 मन्त्रों का भाष्य वा भावार्थ एक लेख के माध्यम से प्रस्तुत करूगां। आपने लेख को पसन्द किया इसके लिए मैं आभारी हूं एवं धन्यवाद करता हूं। सादर।

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