आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 10)
मेरठ में प्राकृतिक चिकित्सा
कानपुर में डा. आनन्द से असफल चिकित्सा कराने के बाद भी मैं योग करने उनके मोतीझील स्थित योग केन्द्र पर जाया करता था। वहाँ योग सम्बंधी पुस्तकों की एक छोटी सी दुकान भी है। एक बार उस दुकान पर मुझे मेरठ के स्वामी जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती की एक पुस्तक मिली, जिसमें बताया गया था कि स्वामी जी अपने ‘जीवन निर्माण केन्द्र’ नामक आश्रम में प्राकृतिक उपचार करते हैं और सभी रोगों की सफल चिकित्सा करते हैं। उस पुस्तक को पढ़कर मुझे लगा कि यदि मैं स्वामीजी के निर्देशन में 40 दिन का उपवास कर लूँ, तो सम्भव है कि मेरे कान ठीक हो जायें। यह सोचकर मैंने स्वामीजी को एक पत्र लिख डाला और उनसे उपचार हेतु उनके आश्रम में आने की अनुमति माँगी।
शीघ्र ही मुझे उनका उत्तर प्राप्त हो गया और उन्होंने आने के लिए कहा। मैंने अपनी सुविधा के अनुसार मेरठ जाने के लिए रिजर्वेशन करा लिया। मुझे वहाँ जाने के लिए कम से कम एक माह का अवकाश चाहिए था।
मंडलीय कार्यालय में उन दिनों सिन्हाजी हमारे सहायक महाप्रबंधक थे, जो अधिकारियों को छुट्टी न देने के लिए कुख्यात थे। प्रशासन विभाग में उनके एक चमचे थे श्री डी.पी. अरोड़ा, जो स्वयं को सुपर ए.जी.एम. समझते थे। मैं उन्हें पीठ पीछे ‘रोड़ा जी’ कहा करता था, क्योंकि वे हमारे हर काम में रोड़ा अटकाते थे। इलाज के लिए छुट्टी माँगते हुए मैंने जो एप्लीकेशन लिखा, वह उन्होंने पहले अस्वीकृत करवा दिया। इस पर मैंने एक लम्बा पत्र लिखा कि जब सबको इलाज कराने की छुट्टी दी जाती है, तो मुझे इससे वंचित क्यों किया जा रहा है? यहाँ मेरे मित्र श्री प्रवीण कुमार (राजभाषा अधिकारी) मेरी सहायता को आये। उन्होंने तत्कालीन मुख्य प्रबंधक श्री अरुणाभ राय को कुछ इस तरह समझाया कि वे छुट्टी देने को तैयार हो गये। वैसे यदि मुझे छुट्टी न मिलती, तो मैं इस मामले को हैड आॅफिस तक ले जाने को तैयार था।
यहाँ यह बता दूँ कि उस समय हमारी श्रीमती जी आगरा गयी हुई थीं और मेरठ जाने का कार्यक्रम मैंने उनसे छिपकर बनाया था। अगर उन्हें पहले से पता होता, तो वे मुझे कभी न जाने देतीं, क्योंकि उनका प्राकृतिक चिकित्सा में कोई विश्वास कभी नहीं रहा। वैसे जाने से पहले मैंने उनको एक पत्र लिख दिया था कि मैं आरोग्य मंदिर, गोरखपुर जा रहा हूँ। केवल प्रवीण जी को यह मालूम था कि मैं गोरखपुर नहीं, बल्कि मेरठ जा रहा हूँ।
खैर निर्धारित दिन पर मैं संगम एक्सप्रेस में बैठकर मेरठ पहुँच गया। वहाँ से पूछताछ करते हुए एक बस में बैठकर स्वामीजी के आश्रम, जो बागपत रोड पर पाँचली गाँव में सड़क के किनारे ही है, पहुँच गया। मुझे आश्रम के नियमानुसार अपना बिस्तर और बर्तन साथ लाने चाहिए थे, परन्तु मुझे इसकी सूचना नहीं थी, इसलिए आश्रम में एक प्रशिक्षणार्थी बहिन साधना जी ने सारी व्यवस्था कर दी। उस आश्रम में मैं पूरे दो माह रहा। इस चिकित्सा की पूरी डायरी या कहानी परिशिष्ट ‘क’ में दे रहा हूँ। मुझे पहले तीन दिन का और फिर 10 दिन का उपवास कराया गया। बीच-बीच में दूसरे उपचार भी दिये गये। हालांकि वहाँ रहते हुए मेरे कानों में कोई लाभ नजर नहीं आया, लेकिन शरीर पूरी तरह नया जैसा हो गया था। मेरा वजन बहुत घट गया था, लेकिन कार्यक्षमता बहुत बढ़ गयी थी। मैं वहाँ दो माह और रहना चाहता था, लेकिन श्रीमतीजी तथा घरवालों के लगातार दबाव के कारण मुझे बीच में ही आना पड़ा। इसका मुझे आज तक अफसोस है। सोचता हूँ कि यदि मैं दो महीने और वहाँ रह जाता तो सम्भव था कि मेरे कान ठीक हो जाते। परन्तु लगता है कि मेरे पूर्व कर्मों के पापों का पूरा प्रायश्चित अभी तक नहीं हुआ है, इसलिए अपनी प्राकृतिक चिकित्सा कराने का मेरा यह पाँचवाँ और अभी तक का अन्तिम प्रयास भी अधूरा और असफल रहा।
सूरज भाईसाहब का गुर्दा प्रत्यारोपण
जब दो महीने बाद मैं जुलाई, 1997 में वापस कानपुर आया, तब तक मेरे पीछे दो मुख्य घटनायें हो चुकी थीं। एक, हमारे चचेरे भाईसाहब डा. सूरजभान का गुर्दा प्रत्यारोपण का आॅपरेशन गंगाराम अस्पताल दिल्ली में सफलतापूर्वक हो चुका था। आॅपरेशन के समय आवश्यक होने पर खून देने के लिए हमारी श्रीमतीजी भी मुकेश के साथ दिल्ली गयी थीं। मैं तो मेरठ में था। श्रीमतीजी का विचार दिल्ली से मेरठ आने (और मुझे जबर्दस्ती वापस ले जाने) का था, परन्तु किसी कारणवश वे नहीं आ सकीं। गुर्दा प्रत्यारोपण के बाद दो-तीन महीने भाईसाहब दिल्ली में ही रहे। बाद में वे मेरे सामने ही कानपुर वापस आये थे।
जब वे आॅपरेशन के बाद पहली बार अपने घर पहुँचे, तो मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि घोर आर्यसमाजी होते हुए भी उन्होंने अपने घर पर लगी हुईं देवी-देवताओं की मूर्तियों और चित्रों को भूमि पर माथा टेककर प्रणाम किया, मानो वे उन्हीं की कृपा से जिन्दा वापस आये हों। मैं मन ही मन क्रोधित हुआ, परन्तु प्रत्यक्षतः मैंने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की, क्योंकि बीमार आदमी से कुछ कहना अनुचित होता।
मोना का विद्यालय प्रवेश
दूसरी घटना यह थी कि मेरी पुत्री मोना जो उस समय साढ़े 3 साल की हो चुकी थी का विद्यालय प्रवेश कौशलपुरी, कानपुर के उसी सनातन धर्म सरस्वती शिशु मंदिर में प्रवेशिका अर्थात् के.जी. में करा दिया गया, जिसमें दीपांक पहले से पढ़ रहा था। उसका प्रवेश सरलता से हो गया, क्योंकि वहाँ के सभी आचार्य और प्रधानाचार्य भी हमें अच्छी तरह जानते थे। यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का पक्षपाती होने के कारण मैं बच्चों की शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दिलवाने के पक्ष में था और हूँ। मैं ऐसे कई स्वयंसेवकों को जानता हूँ, जो स्वयं सरस्वती शिशु मन्दिरों के प्रबंधक तक रहे हैं, लेकिन अपने बच्चों का प्रवेश ईसाइयों के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में कराते हैं। कथनी और करनी में ऐसा अन्तर मुझे बहुत क्षुब्ध करता है।
चक्कर आने की बीमारी
जब मैं मेरठ से इलाज कराके लौटा था, तो मेरा वजन बहुत कम हो गया था। सारे कपड़े बहुत ढीले हो गये थे और देखने में भी मैं बहुत कमजोर लगता था, जैसे किसी ने शरीर का सारा खून चूस लिया हो। लेकिन मैं केवल देखने में ही कमजोर था। वास्तव में मेरी क्षमताएँ बहुत बढ़ गयी थीं। उदाहरण के लिए, मैं बिना थके लगातार 3-4 घंटे तक भी मानसिक कार्य जैसे पुस्तक लिखना आदि कर लेता था, जबकि पहले केवल एक घंटे में ही बुरी तरह थक जाता था। जहाँ तक वजन की बात है मैं जानता था कि कुछ समय तक घर का भोजन लगातार लेते रहने पर मेरा वजन फिर सामान्य हो जाएगा। ऐसा ही हुआ भी।
लेकिन मेरठ से मैं एक बीमारी अपने साथ ले आया था। वह थी चक्कर आने की बीमारी। कोई भारी चीज खा लेने पर या ठंडी हवा में चलने पर मुझे चक्कर आ जाते थे, जैसे धरती घूम रही हो। पहली बार ऐसा तब हुआ, जब मैं घर से मंडलीय कार्यालय पैदल जा रहा था। रास्ते में ही मुझे चक्कर आने लगे। एक बार तो सोचा कि वहीं बैठ जाऊँ, परन्तु फिर भी चलता गया और किसी तरह मंडलीय कार्यालय पहुँच गया। वहाँ कुर्सी पर बैठते ही फिर मुझे चक्कर आये और उल्टी आने लगी। किसी तरह मैंने एक-दो उल्टी कीं, परन्तु चक्कर आना और जी घबराना बन्द नहीं हुआ। तब मैंने प्रवीण जी से निवेदन किया कि किसी तरह मुझे घर पहुँचा दो, क्योंकि मैं सोना चाहता हूँ। वे अपनी कार में मुझे घर ले गये। मैं इतनी कमजोरी महसूस कर रहा था कि कार से अपने फ्लैट तक भी नहीं चल पा रहा था। किसी तरह प्रवीणजी मुझे सहारा देकर घर में ले जाने लगे।
जब श्रीमतीजी ने इस तरह मुझे आते देखा तो वे घबरा गयीं कि पता नहीं क्या हो गया। परन्तु मैं आकर सीधे सो गया। मुझे दो-तीन बार उल्टी हुई। एक बार मैंने खुद पानी पीकर उल्टी कर दी। उससे काफी आराम मिला। तब तक श्रीमती जी ने फोन करके मेडीकल कालेज से दोनों रिश्तेदार चिकित्सा विद्यार्थियों डा. अनिल और डा. सन्तोष को बुला लिया था। उन्होंने मुझसे बहुत कहा कि एक गोली ले लो, उससे उल्टी बन्द हो जायेंगी, परन्तु मैंने साफ इंकार कर दिया। उनको कुछ बुरा लगा होगा, परन्तु वे जानते थे कि मैं एलोपैथी की दवाओं से कितना चिढ़ता हूँ। इसलिए नाराज नहीं हुए। शाम तक आराम करने के बाद मैं स्वस्थ हो गया।
चक्कर आने की इस बीमारी का कारण मेरी दृष्टि में यह था कि मेरठ आश्रम में उपवास के दिन तीन-चार बार गुनगुने पानी से कुंजर (या कुंजल) करना पड़ता है। कभी-कभी वह पानी अधिक गर्म हो जाता था, जिससे पेट में शायद जलन और घाव हो गया। वही बीच-बीच में कष्ट देता था। एक बार तो मैं अपने कम्प्यूटर सेंटर में अस्वस्थ हो गया। तब वहाँ के एक वरिष्ठ कर्मचारी श्री त्रिपाठी जी बैंक की कार में मुझे घर तक लाये। इसके बाद मैं बहुत सावधान हो गया था और कोई ऐसी चीज नहीं खाता था, जो पेट पर अनावश्यक जोर डाले। मैं गर्म चीजों से बचता था और दूध भी ठंडा करके पीता था। ऐसी सावधानी रखने पर लगभग एक साल में धीरे-धीरे इस कष्ट से मुझे मुक्ति मिली।
अच्छा लगा पढ़ कर आपके विचार और आपके संस्मरण। मैंने अभी कुछ ही संस्मरण पढ़े हैं। हर संस्मरण में एक शिक्षा होती है। बातों से हमे अवगत करने के लिए आपका शुक्रिया।
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। सारा लेख पढ़ा। लगभग २५ – ३० वर्ष पूर्व मैंने भी स्वामी जगदीश्वरानन्द जी को देहरादून में देखा था। हमने एक मित्र की सहायता से एक बार एक गरीब हरिजन की झोपड़ी में आर्यसमाज का सत्संग कराया था जिसमे स्वामीजी ने आकर भाषण किया था। मुझे याद है कि उन्होंने बेकरी के रस, बिस्कुट खाने का विरोध किया था और बताया था कि उससे कही अधिक पुष्टिकारक बासी रोटी होती है। देहरादून के एक आर्यसमाज में वह वर्ष में एक बार प्राकृतिक चिकित्सा शिविर भी लगाते थे परन्तु मैं उनमे कभी जा न सका था। उनके एक शिष्य डॉ विनोद कुमार शर्मा आजकल देहरादून में रहते हैं और प्राकृतिक चिकित्सा करते हैं। आपके कानो को चिकित्सा से लाभ नहीं हुआ ये पढ़ा और आपके ही इस बारे में कारण भी पढ़े। सूरज भाई साहेब का आर्य समाजी होकर भी मूर्तियों को नमन करना उनकी सिद्धांतों में निष्ठां के प्रति अपरिपक्वता का सूचक है। आपने अपने पुत्र व पुत्री का सरस्वती शिशु मंदिर में प्रवेश कराकर एक आदर्श प्रस्तुत किया है। हमने यहाँ आर्यसमाज में भी ऐसे वरिष्ठ लोग देखे हैं जिन्होंने हिंदी की वकालत की, अंग्रेजी का निमंत्रण पत्र मिलने पर कार्यक्रम में नहीं जाते थे परन्तु उन्होंने अपने बच्चों को मिशनरी पब्लिक स्कूलों में पढ़ाया। यह देख कर युवावस्था में क्रोध आता था। आज की कड़ी ज्ञानवर्धक है। धन्यवाद।
धन्यवाद, मान्यवर ! आपने ही नहीं मैंने भी संघ के ऐसे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को देखा है जो शिशु मंदिर चलाते हैं यानी उनके प्रबंधक वगैरह हैं, लेकिन अपने बच्चों को ईसाई मिशनरियों के विद्यालयों में भारी फीस देकर पढ़ाते हैं. कथनी और करनी में ऐसा अंतर मुझे बहुत क्षुब्ध करता है.
धन्यवाद जी।
विजय भाई , यह किश्त पड़ कर मुझे महसूस हुआ कि सिहत के बारे में हमारे बहुत से विचार मिलते हैं . जब कोई कष्ट शरीर को हो जाए तो कुछ लोग तो सारा भार डाक्टर पे छोड़ देते हैं लेक्किन कुछ ऐसे हैं कि वोह हर कोशिश करते हैं जिस से वोह कष्ट दूर हो जाए . बहुत वर्षों से सिहत के बारे में बहुत किताबें पड़ीं और अजमाया भी लेकिन कहीं से भी फैदा नहीं हुआ . अब आप को ही लूँ ,बेछक आप कानों की प्राब्लम होते हुए भी हर काम बखूबी कर रहे हैं लेकिन आप के दिमाग के किसी कोने में यह तो है ही कि किसी भी तरह आप की सुनने की शक्ति वापस आ जाए . इसी तरह जब मैं अच्छी तरह बोल नहीं सकता और सामने वाला बैठा समझ नहीं सकता तो मुझे भीतर भीतर गुस्सा आता है ,इसी लिए बहुत वर्षों से स्पीच थेरपी लगातार करता हूँ , चाहे बोल सकूँ या न . फिर भी कुछ कुछ धीरे धीरे समझा देता हूँ लेकिन मैं दोस्तों में बहुत बातें किया करता था ,उन को हंसाया करता था और गाया भी करता था , जो अब मुझे खीझ आती है .
दुसरे जो आप ने इतना बड़ा वर्त रखा , इस से मैं सहमत नहीं हूँ किओंकि जो हमारा मिहदा है उस में जो मस्सल होते हैं उन में से एक तेज़ जूईस होता है जो पाचन क्रिया को बढावा देता है . जब बहुत देर तक हम व्रत रखते हैं तो मिह्दे के मसल जो खाने को चरन करते हैं वोह आपस में ही रगड़ हो जाने लगते हैं जिस से मिह्दे में जखम होने लगते हैं जिस से शरीर को नुक्सान होने का डर रहता है , शाएद इसी लिए आप को जलन शुरू हो गई , यह तो अच्छा हुआ आप की यह समस्या ठीक हो गई वर्ना बहुत दफा यह खतरनाक हद तक जा सकती है . इस से एक बीमारी हो सकती है जिस का पूरा नाम मुझे याद नहीं ,कुछ नर्वोसा ऐसा है जिस से यहाँ बहुत मॉडल जो फोटोग्राफी में काम करतीं थी कम खाने से उन के शरीर करंग जैसे हो गए , वज़न बढना ही बंद हो गिया और भूख भी ख़तम हो गई . इस सोमवार को भी बीबीसी पर इस के बारे में बहस हो रही थी , बहुत से डाक्टर भी थे . उन का कहना था कि अगर हम ठीक भोजन खाएं तो हमारा शरीर खुद detox करने के काबल है . मैंने भी इतना पड़ा कि बहुत पेजज़ लिखने पड़ेंगे .
आपका कहना सही है भाई साहब ! वैसे उपवास को प्राकृतिक चिकित्सा में अंतिम उपाय माना जाता है। परंतु यह किसी अनुभवी व्यक्ति की देखरेख में ही करना चाहिए।