आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 14)

मंडलीय कार्यालय में कम्प्यूटर शिक्षा

उस समय तक हमारे बैंक के सभी मंडलों में लगभग सभी विभागों में पी.सी. लगा दिये गये थे और अधिकारी तथा कुछ बाबू भी उन पर कार्य करते थे। कार्य अधिकतर एमएस-आॅफिस पैकेज पर किया जाता था, जिससे पत्र, रिपोर्ट, चार्ट आदि तैयार किये जा सकते थे। कई अधिकारियों ने यह कार्य अपने ही स्तर पर सीख लिया था और कई को प्रशिक्षण भी दिया गया था। फिर भी वे इस कार्य में कई बार कठिनाई अनुभव करते थे। जब भी मैं अपने कम्प्यूटर सेंटर से मंडलीय कार्यालय जाता था, तो वे अपनी कठिनाइयाँ मुझे बताते थे और मैं उनका समाधान कर दिया करता था। तभी कुछ लोगों ने अनुभव किया कि उन्हें एमएस-आॅफिस में कार्य करने के बारे में बाकायदा प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता है। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं उन्हें प्रशिक्षित कर दूँ। उनको इस कार्य के लिए बैंक से छुट्टी देना सम्भव नहीं था और कार्यालय समय में सब एक साथ खाली हों ऐसा होना भी कठिन था। इसलिए हमने यह तय किया कि शाम को 4.30 बजे मैं रोज मंडलीय कार्यालय आ जाया करूँगा और फिर 5.30 या 6.00 बजे तक उनको प्रशिक्षण दूँगा।

ऐसा ही किया गया। मैंने कम्प्यूटर के प्रारम्भिक ज्ञान से प्रारम्भ करके एमएस-आॅफिस सिखाना शुरू कर दिया। इस प्रशिक्षण में पहले 10-12 लोग आ जाते थे। परन्तु धीरे-धीरे यह संख्या 7-8 पर सिमट गयी। इनमें सबसे अधिक उत्साह से मुम्बई वाली श्रीमती नेहा नाबर भाग लेती थीं। कभी-कभी हमारे स.म.प्र. महोदय श्री एस.एन.पी. सिंह भी कक्षा में बैठ जाते थे। मेरी पढ़ाने की शैली का उनके ऊपर अच्छा प्रभाव पड़ता था। यह प्रशिक्षण लगभग एक माह चला और इतने समय में वे लोग काफी सीख गये। इससे कार्यालय का काम भी सुचारु रूप से चलने लगा। मेरा विचार दूसरा बैच शुरू करने का था, परन्तु उसके लिए पर्याप्त लोग नहीं आये, इसलिए वह शुरू ही नहीं हुआ।

बैंक में पूर्ण कम्प्यूटरीकरण

उस समय तक हमारे बैंक की कुछ गिनी चुनी शाखाओं में ही कम्प्यूटर पर कार्य होता था। शेष सभी में परम्परागत तरीके से हाथ से ही सारा कार्य किया जाता था। कई बैंक अपनी शाखाओं में पूर्ण कम्प्यूटरीकरण कर चुके थे या कर रहे थे। इसलिए हमारे बैंक ने भी अपनी सभी शाखाओं का कम्प्यूटरीकरण करने का निर्णय किया। यह कार्य तीन चरणों में किया जाना था। पहले चरण में सभी शहरी शाखाओं का कम्प्यूटरीकरण होना था। दूसरे चरण में अर्द्ध-शहरी (कस्बाई) शाखाओं का और तीसरे चरण में शेष शाखाओं का कम्प्यूटरीकरण किया जाना था। सभी मंडलों को अपनी-अपनी शाखाओं के लिए कम्प्यूटर खरीदने का कार्य अपने स्तर पर करने का आदेश बैंक से आया। अभी तक ऐसी खरीदारी प्रधान कार्यालय द्वारा की जाती थी। परन्तु अब इस कार्य का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया था। अपने कानपुर मंडल की लगभग 125 शाखाओं के लिए हार्डवेयर खरीदने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आयी। पुराने कम्प्यूटर भी बदले जाने थे, क्योंकि वर्ष 2000 की समस्या के कारण वे अधिक उपयोगी नहीं रह गये थे।

हार्डवेयर खरीदने के लिए एक समिति बनायी गयी। इसमें स.म.प्र. महोदय के अलावा कानपुर, झाँसी और हमीरपुर क्षेत्रों के क्षेत्रीय प्रबंधक, हमारे मुख्य प्रबंधक, मैं, विकास विभाग के तत्कालीन प्रबंधक श्री ए.के. वालिया और श्री अतुल भारती सम्मिलित थे। पहले हमने शाखाओं की संख्या और आकार के अनुसार यह तय किया कि कितने सर्वर, कितने नोड और कितने प्रिंटर खरीदने हैं। उनका काॅनफिगरेशन भी हमने तय कर लिया। फिर अपनी आवश्यकता के अनुसार खरीदारी के लिए टेंडर मँगाये गये। हमारे बैंक ने कम्प्यूटर सप्लाई करने वालों का एक पैनल बना दिया था। हम केवल पैनल में शामिल कम्पनियों से ही टेंडर ले सकते थे। हमने वही किया और उनके आधार पर एक टेंडर को मंजूर करना था। कई बैठकों के बाद अन्त में दो टेंडर छाँटे गये, जो हर तरह से उपयुक्त थे। वे दो कम्पनियाँ थीं- एच.सी.एल. और काॅम्पैक। काॅम्पैक सप्लाई करने वाली कम्पनी ने लगभग 1 करोड़ का यह आर्डर लेने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया। मैं स्वयं भी इसके पक्ष में था, क्योंकि इस कम्पनी के कम्प्यूटरों के साथ हमारा अनुभव अच्छा रहा था। लेकिन स.म.प्र. महोदय ने अन्ततः एच.सी.एल. के पक्ष में निर्णय किया, क्योंकि प्रधान कार्यालय ने भी पहले एच.सी.एल. के ही कम्प्यूटर खरीदे थे।

कम्प्यूटरों की इस खरीदारी के समय मेरे सम्बंध श्री ए.के. वालिया के साथ बहुत अच्छे हो गये थे। हम दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गयी थी। हमने मिलकर लगभग 1 करोड़ के कम्प्यूटर खरीदे, परन्तु किसी ने हमारे ऊपर एक उँगली तक नहीं उठायी थी। 1-2 को छोड़कर सभी शाखाओं का कम्प्यूटरीकरण निर्धारित समय के अनुसार सफलतापूर्वक हो गया। मैंने इसमें बहुत भाग-दौड़ की थी। दूर-दूर की शाखाओं में भी साइट तैयार कराने, कम्प्यूटर स्थापित कराने और कार्य प्रारम्भ कराने में मैं स्वयं रुचि लेता था। मेरे साथी अधिकारी केवल स्थानीय अर्थात् कानुपर शहर की शाखाओं को देखते थे। बाहर ज्यादातर मैं स्वयं जाता था। कई बार मुझे आगरा, हमीरपुर, बाँदा, झाँसी, ललितपुर और फतेहपुर तक जाना पड़ा।

एक बार मैं आगरा में अपनी न्यू आगरा शाखा का कार्य कम्प्यूटर पर प्रारम्भ कराने के लिए गया। वहाँ कम्प्यूटर लग चुक थे, लेकिन शाखा वाले पुराने खातों का बैलेंस नहीं कर रहे थे, जिससे कम्प्यूटर पर कार्य प्रारम्भ नहीं हो पा रहा था। मुझसे कहा गया कि जाकर बैलेंस कराओ और काम चालू कराओ। मैंने दो-तीन दिन वहाँ जमकर कार्य किया। फिर जब मैं लौटने की सोचने लगा तो शाखा वालों ने कहा कि जब आप आ ही गये हैं तो दो-तीन दिन और रुक जाइये और काम चालू कराकर ही जाइये। मैं मान गया और सौभाग्य से केवल अगले तीन दिनों में ही काम प्रारम्भ हो गया। लगभग एक हफ्ते बाद जब मैं अपने कार्यालय वापस पहुँचा, तो वे सोच रहे थे कि मैं आगरा में अपने घर में मस्ती करके आया हूँ। परन्तु जब मैंने बताया कि सारे कार्य को आॅन-लाइन कराके आया हूँ, तो सबने बहुत प्रशंसा की।

इसी तरह एक-एक करके अधिकांश शाखाओं का कार्य कम्प्यूटरों पर होने लगा। जिस समय मैं कानपुर मंडल में आया था, तब केवल तीन शाखाओं का आंशिक कार्य कम्प्यूटरों पर होता था और जब मैंने कानपुर मंडल छोड़ा था, तो केवल तीन को छोड़कर सभी शाखाओं का कार्य कम्प्यूटरीकृत हो चुका था। यह कोई मामूली सफलता नहीं कही जा सकती।

पुस्तक लेखन

बैंक के कार्य के साथ ही मेरा पुस्तक लेखन का कार्य भी चल रहा था। अपनी पहली प्रमुख पुस्तक ‘रैपिडेक्स कम्प्यूटर कोर्स’ के बाद मैंने अपनी पुस्तकें सीधे कम्प्यूटर पर टाइप करने का कार्य स्वयं करने का निर्णय किया था। इससे मेरा बहुत सा समय बच सकता था और कार्य भी मेरी पूर्ण संतुष्टि के अनुसार अच्छे से अच्छा हो सकता था, क्योंकि कहावत है- “आप काज, महा काज”। इसलिए मैंने एक कम्प्यूटर खरीदना तय किया। पहले की तरह पुराना (सेकेंड हैंड) कम्प्यूटर लेने की बजाय मैंने एकदम नया और नवीनतम काॅनफिगरेशन वाला कम्प्यूटर लेना तय किया, जिससे कि वह लम्बे समय तक काम दे सके। मेरे मित्र श्री मनीष श्रीवास्तव, जिन्होंने मेरी रैपिडेक्स वाली पुस्तक तैयार की थी, कम्प्यूटर असेम्बल भी किया करते थे। मैंने यह कार्य उनसे ही कराया। उन्होंने कम्प्यूटर के सभी भाग मौलिक खरीदे और विश्वसनीय डीलर से खरीदे। इस प्रकार असेम्बल करके मुझे जो कम्प्यूटर मिला, वह बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। मेरी आगामी सभी किताबें उसी पर तैयार हुईं।

प्रारम्भ में मैं हिन्दी ठीक से टाइप नहीं कर पाता था। केवल तर्जनी उँगली का उपयोग करके एक-एक अक्षर टाइप करता था। इसमें समय अधिक लगता था। इसलिए मेरे मित्र श्री प्रवीण कुमार ने मुझे सलाह दी कि मैं हिन्दी टाइपिंग सीख लूँ। यह सलाह मुझे जँच गयी। मैंने अपनी पुरानी किताबों के ढेर में से हिन्दी टाइपिंग सिखाने वाली किताब खोज ली, जो कभी मेरी बहिन सुनीता ने अपने लिए खरीदी थी। वह किताब यहाँ बहुत काम आयी। उसी किताब के आधार पर मैंने अपने ही कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर हिन्दी टाइपिंग सीखना प्रारम्भ कर दिया। सौभाग्य से मात्र 30 दिन में मैं पर्याप्त रूप में हिन्दी टाइपिंग सीख गया। बाद में धीरे-धीरे मेरी गति भी बढ़ गयी और अब तो मैं किसी भी अन्य टाइपिस्ट की तरह हिन्दी में टाइप कर लेता हूँ। इस अत्यन्त उपयोगी सलाह के लिए मैं प्रवीण जी का बहुत आभारी हूँ।

प्रारम्भ में मेरे पास केवल एक प्रकाशक मै. पुस्तक महल की पुस्तकों का आदेश था। उन्होंने अपनी ‘रैपिडैक्स कम्प्यूटर कोर्स’ नामक पुस्तक को नये साॅफ्टवेयर विंडोज 95 और एमएस-आॅफिस के अनुसार लिखवाया था। इसमें इंटरनेट एक्सप्लोरर पर भी जोर दिया गया था। इस पुस्तक का केवल टाइटिल पुराना था, सारी सामग्री पूरी तरह नयी थी जो मैंने कड़ी मेहनत से तैयार की थी। प्रारम्भ में उस पुस्तक पर मुझे केवल 6 प्रतिशत रायल्टी देने का एग्रीमेंट हुआ था, वह भी बिक्री मूल्य पर। यह वास्तव में केवल 4 प्रतिशत के बराबर था। मैं इतने पर भी संतुष्ट रहता, अगर वे राॅयल्टी का भुगतान करते। परन्तु उन्होंने कानूनी कठिनाइयों का बहाना करके एग्रीमेंट बदल दिया और केवल पेज के हिसाब से भुगतान करने को तैयार हुए। मुझे बहुत निराशा हुई। परन्तु मैं एक नया लेखक था और अधिक जोर नहीं दे सकता था, इसलिए मन को समझा लिया। मैंने उनके लिए 5-6 पुस्तकें और लिखीं। सभी का भुगतान पेजों के अनुसार हुआ। फिर मेरा मन उनसे उचट गया और मैंने उनके लिए पुस्तकें लिखना बन्द कर दिया। वैसे भी उनके पास मेरे लिए अधिक काम नहीं था।

फिर मैंने अन्य प्रकाशकों से सम्पर्क बनाना प्रारम्भ किया। सबसे पहले तो अपने पुराने प्रकाशक मै. विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा के लिए बच्चों की पुस्तकें तैयार कीं। कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों के लिए ‘बाल कम्प्यूटर शिक्षा’ नामक सीरीज लिखी, जिन पर मैंने अपने बजाय अपनी श्रीमती जी का नाम लेखिका के रूप में दिया। ये पुस्तकें अंग्रेजी में भी छपीं।

इनके अलावा मै. विद्या प्रकाशन, मेरठ की अनेक पुस्तकों को मैंने लिखा। उन्होंने पहले से ‘कम्प्यूटर टुडे’ नामक सीरीज कक्षा 1 से कक्षा 10 तक के विद्यार्थियों के लिए किसी और से लिखवाकर छाप रखीं थीं। उन सभी को मैंने अपडेट किया और अपना ही नाम लेखक के रूप में दिया। ये पुस्तकेें अंग्रेजी में भी छपीं और उन पर भी मैंने अपना नाम दिया। हालांकि इन सभी पुस्तकों का भुगतान भी मुझे पेजों के अुनुसार ही मिला, क्योंकि प्रकाशक के अनुसार बच्चों की पुस्तकों में राॅयल्टी देना सम्भव नहीं होता।

फिर मै. विद्या प्रकाशन ने मुझसे उत्तर प्रदेश बोर्ड के हाईस्कूल के विद्यार्थियों के लिए कम्प्यूटर की पुस्तकें लिखवायीं। ये पुस्तकें भी हिन्दी में थीं। पर इन पर मैं राॅयल्टी लेने के लिए अड़ गया और कुछ ना-नुकर के बाद वे भी तैयार हो गये। वे एक बार में एक पुस्तक की लगभग 5000 प्रतियाँ छपवाते हैं और उनकी राॅयल्टी पेजों के अनुसार किये जाने वाले भुगतान से अधिक ही होती है। इस तरह यदि राॅयल्टी का भुगतान सही-सही किया जाये, तो लेखक फायदे में ही रहता है। परन्तु सभी प्रकाशक इसके लिए तैयार नहीं होते। वास्तव में वे लेखक को एक मामूली बेरोजगार व्यक्ति से ज्यादा नहीं समझते। वे यह मानते हैं कि जिस आदमी के पास कोई काम और पूँजी नहीं होती, केवल ज्ञान होता है, वही लेखक बनता है और उसको मूँगफलियाँ खिलाकर मनचाहा काम कराया जा सकता है। उनके लिए पुस्तकें बेचने की कला ही महत्वपूर्ण है, लिखने की कला दो कौड़ी की भी नहीं है। यही कारण है कि पुस्तक विक्रेताओं को 35-40 प्रतिशत तक कमीशन देने को तैयार रहने वाले प्रकाशक लेखक को 5 प्रतिशत राॅयल्टी देने में भी रोते हैं। लेखक भी मजबूर होता है, इसलिए कुछ कर नहीं पाता। परन्तु मेरे साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। इसलिए मैं अपनी शर्तों पर ही लिखता था और अभी भी लिखता हूँ। बीच-बीच में कई प्रकाशकों ने मुझसे पुस्तकें लिखवाने के लिए सम्पर्क किया, परन्तु मेरी शर्तों को सुनकर भाग खड़े हुए। वैसे भी मैंने यह तय कर रखा था कि किसी नये प्रकाशक के लिए नहीं लिखूँगा, क्योंकि उनका बेचने का नेटवर्क अच्छा नहीं होता। उनसे पारिश्रमिक भी कम मिलता है।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

7 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 14)

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    प्रेरक आलेख ….. सादर प्रणाम भाई

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम बहिन जी! आभार !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप तो कमाल के इंसान हैं , इतनी नॉलेज ?पड़ कर हैरानी होती है और आप को दाद देनी बनती है .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, भाई साहब ! गुरुजनों की संगत में मैंने जो थोडा बहुत ज्ञान प्राप्त किया है उसका मैं अधिक से अधिक उपयोग करता हूँ. इसके लिए कड़ी मेहनत से पीछे नहीं हटता. यही मुझमें और अन्य लोगों में अंतर है, वर्ना मुझसे भी बहुत अधिक ज्ञानी लोग मौजूद हैं. आपको हार्दिक धन्यवाद.

  • विजय कुमार सिंघल

    आभार, मान्यवर !

  • Man Mohan Kumar Arya

    Ati mahatvapurn, upyogi jankariyon se paripurn awan apki computer vigyan me sidhhastata ka bodh karane wala prashansniya lekh. Dhanyawad awam badhai.

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक आभार, मान्यवर !

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