नज्म
रंज यह नहीं कि कोई गुफ्तगु नहीं अब दरमयां |
मलाल यह भी नहीं कि गैरों से हैं अब सिलसिले |
इक छोटा सा सवाल है रह- रहकर जो जहन मे आया |
क्या दस्तूर है ज़िन्दगी का क्यों नादान दिल समझ ना पाया |
सच्चाई की कीमत अब नहीं दिखती यह समझ आया |
वफा बरसों से करके भी आखिर दिल ने क्या पाया |
जाने किस कशिश से बँधे हैं अभी भी रिशते |
जाने क्या बाकि अब और रह गए इम्तिहाँ |||
— कामनी गुप्ता
बढ़िया कविता. यह ग़ज़ल नहीं कही जा सकती !
जी धन्यवाद !