गुमान
पंच तत्वों की , काया पर इंसान,
क्यों इतना गुमाँन करे !
सदियों सी बटी हुई दिल की बाती,
सुलगती जा रही है !
तन की माटी का मोह, जाता नहीं,
मन की हाँडी में ख्बाईशें ,
उबलती जा रही हैं !
ऋतु बदली,बदला मौसम ,
मन का “मैं”जाता नहीं !
प्यार ,मोहब्बत जज्बातों से परे,
आत्मा मुक्ती चाह रही है!
रिश्तों में सीलन, देर तक रहे,
फफूँद जाती नहीं!
दिल के आँगन में सूरज के
चूल्हे की आग,
धधकती जा रही है!
जिंदगी के बोझ तले अब,
घुटन सी लगती है!
मोहन ! तेरे मिलन की चाह ,
मन को जला रही है!
दिल की लगन तुमसे,”आशा”,
लफ़्ज़ों में कह न पाये!
मोहन ! शीश रख दिया,
चरणों में तेरे,
अँखिया क्यों नीर बहा रही हैं !
— राधा श्रोत्रिय “आशा”
सुंदर कविता
बहुत अच्छी कविता।