आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 40)
हिसाब-किताब का मामला
वैसे बांगिया जी बाहर वालों के लिए बहुत उदारता का व्यवहार करते थे और अपनी दरियादिली दिखाते थे। एक बार जब मैं छुट्टी पर आगरा गया था, तो उन्होंने कैंटीन वाले को सात हजार रुपये एडवांस दे दिये और उसकी प्रविष्टि एडवांस वाले रजिस्टर में नहीं की। बाद में उसका बिल आया, तो बिना एडवांस काटे ही पूरा बिल पास कर दिया और उसका भुगतान भी कर दिया। इसका पता दो-तीन महीने बाद तब चला, जब लेखाबन्दी की जा रही थी। लेकिन तब तक वह कैंटीन वाला अपना पूरा भुगतान लेकर चला गया था और उसकी जगह कोई दूसरा कैंटीन वाला आ गया था, इसलिए उससे सात हजार की वसूली नहीं हो पायी। यह मामला बहुत विकट था। सारी गलती बांगिया जी की थी, क्योंकि उन्होंने अपने ही स्तर पर एडवांस मंजूर करके दे दिया था और हिसाब-किताब रखने वाले अधिकारियों को इसकी सूचना नहीं दी थी और न उस राशि को काटने की चिन्ता की थी। ऐसी स्थिति में मैंने बांगिया जी को इस संकट से निकाला। मैंने उनकी अनुमति से गेस्ट फैकल्टी को भुगतान और पानी के टैंकर खरीदने के नाम पर इस राशि को दो-तीन माह में एडजस्ट किया। जब सारी राशि एडजस्ट हो गयी, तब उनको भी शान्ति मिली। इसके साथ ही मैंने उनसे निवेदन किया कि इतनी दरियादिली मत दिखाया करिए।
मैं गौड़ साहब के समय से ही हिसाब-किताब रखता था और अधिकांश वाउचर भी स्वयं बना लेता था, जिस पर दो अधिकारियों के हस्ताक्षर होते थे। इतना ही नहीं, मैं रोजाना के खर्चों के लिए कुछ नकद राशि भी अपने पास रखता था, ताकि संस्थान के लिए कोई वस्तु आवश्यक होने पर तत्काल खरीदी जा सके और उसका तुरन्त भुगतान भी किया जा सके। मैं एक बार में 5 हजार रुपये एडवांस लेता था और जब इतनी राशि के बिल एकत्र हो जाते थे, तो उनका सारांश बनाकर जमा कर देता था तथा फिर से एडवांस ले लेता था। ऐसा मैं प्रारम्भ से ही कर रहा था और कोई समस्या नहीं होती थी। लेकिन बांगिया जी ने हिसाब-किताब का काम तो दूसरों को दिया ही, नकदी (पैटी कैश) रखने का काम भी मुझसे ले लिया। मैंने इस बात पर कोई आपत्ति नहीं की और सारे हिसाब के साथ बकाया राशि भी उनको दे दी।
जब लेखाबन्दी होने लगी, तो पता चला कि मेरे द्वारा एडवांस लिये गये 5 हजार रुपयों का हिसाब नहीं है। यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैंने पूरा हिसाब दिया था। मैंने बांगिया जी से पूछा भी कि इतनी बड़ी राशि कहाँ चली जायेगी? तो वे बोले- ‘काला चोर ले गया।’ यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा, क्योंकि वे प्रकारान्तर से मुझे ही चोर कह रहे थे। उस दिन सायं वापस जाने का समय हो गया था। इसलिए मैं घर लौट आया। जब मैं घर आया, तो इसी मामले के कारण थोड़ा सुस्त था। श्रीमती जी ने मुझे सुस्त देखकर पूछा भी कि ‘क्या बात है, आज सुस्त क्यों हो?’ मैंने कहा- ‘कोई बात नहीं है, थक गया हूँ।’ यह सुनकर श्रीमतीजी ने भी इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
अगले दिन आॅफिस जाते ही मैंने पहला काम यह किया कि पिछले 6 माह का पूरा हिसाब वाउचरों से मिलाकर देखा और पता लगा लिया कि एक बिल जो 5 हजार से कुछ अधिक राशि का था, मैंने जमा किया था, परन्तु हिसाब बनाने वाले अधिकारी की गलती से कम्प्यूटर में नहीं चढ़ाया गया, जिस कारण एडवांस ली गयी 5 हजार की रकम एडजस्ट नहीं हुई। यह पता लगाते ही मैंने बांगिया जी को इसकी जानकारी दी और उन्होंने भी देखकर मान लिया कि हाँ, यह चूक हुई है। अपना पक्ष साफ होने पर मुझे बहुत सन्तोष हुआ। शाम को घर जाकर मैंने श्रीमती जी को बताया कि कल मैं क्यों सुस्त था और आज उस मामले को कैसे निपटाकर आया हूँ। यह जानकर उनको भी खुशी हुई।
पुस्तकालय की किताबों का मामला
मेरे और बांगिया जी के बीच तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था। हालांकि मैं तनावमुक्त रहने की पूरी कोशिश करता था और रहता भी था। पहले पुस्तकालय को मैं सँभालता था और उसको मैंने ही व्यवस्थित किया था। पुस्तकालय के लिए आवश्यक पुस्तकें भी मैं ही खरीदता था। बांगिया जी ने सहायक महा प्रबंधक बनते ही सबसे पहले पुस्तकालय की जिम्मेदारी मुझसे ले ली। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन मैं अपनी पसन्द की पुस्तकें पढ़ने को अवश्य लेता था, जिसे बांगिया जी रोक नहीं सकते थे।
एक बार मैं बैंक में सीएआईआईबी की भाग 2 की परीक्षा दे रहा था। उसकी तैयारी के लिए मैंने तीन किताबें पुस्तकालय से ले लीं, जो कि वहाँ उपलब्ध थीं। नियमानुसार कोई व्यक्ति किसी पुस्तक को 14 दिन के लिए ही ले सकता है। पर इस नियम को मानता कोई नहीं। इसलिए मैंने भी दो माह के लिए पुस्तकें ले लीं। बांगिया जी को पता चला कि मैं पुस्तकालय की पुस्तकें लेकर परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ, तो उन्होंने आपत्ति की। मैंने कहा कि इसमें गलत क्या है? सभी मंडलीय कार्यालयों में इन परीक्षाओं की पुस्तकों के कई-कई सेट रखे जाते हैं, जो सबको जारी किये जाते हैं। पुस्तकें होती ही इसलिए हैं। मैं परीक्षा होते ही पुस्तकें वापस कर दूँगा, क्योंकि किसी दूसरे को तो इनकी जरूरत है नहीं। परन्तु बांगिया जी न माने और कहा कि पुस्तकें तुरन्त वापस कर दूँ। मैंने इसके लिए साफ इनकार कर दिया। हालांकि उन तीनों पुस्तकों का मूल्य केवल 700 रुपये था और मैं सरलता से खरीद सकता था, परन्तु मैंने इसे अनावश्यक समझा।
इस पर नाराज होकर बांगिया जी ने मुझे एक पत्र लिख डाला और किताबें तत्काल वापस करने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने धमकी दी कि यदि तीन दिन के अन्दर किताबें वापस नहीं की गयीं, तो उनका मूल्य मेरे वेतन से काट लिया जाएगा। यह पत्र मुझे बहुत अपमानजनक लगा। पानी सिर से ऊपर जा रहा था। इसे मैं सहन नहीं कर सकता था। इसलिए मैंने उस पत्र का एक लम्बा जबाब तैयार किया। उसमें मैंने उन पर स्पष्ट आरोप लगाया कि जब से आप इस संस्थान में आये हैं, तब से मुझे नुकसान पहुँचाने और उपेक्षित करने का कार्य कर रहे हैं। मैंने उदाहरण के रूप में फोन और मोबाइल सुविधा वापस लेने में उनकी भूमिका का जिक्र किया और बाहरी अधिकारियों के सामने मेरा अपमान करने का भी आरोप लगाया। मैंने यह भी लिख दिया कि आप मेरे सारे कार्य छीनकर बैंक को नुकसान पहुँचा रहे हैं, क्योंकि बैंक एक मुख्य प्रबंधक की सेवाओं का उपयोग नहीं कर पा रहा है।
साथ ही मैंने यह भी लिख दिया कि किसी मुख्य प्रबंधक के वेतन से सिर्फ इसलिए कटौती करना कि पुस्तकालय की कुछ पुस्तकें समय से नहीं लौटायी गयी हैं, घोर आपत्तिजनक और अपमानजनक है। इसको कोई सहन नहीं कर सकता। इसलिए ऐसी हरकत से बाज आयें। मैंने उस पत्र की तीन-चार प्रतियाँ तैयार कीं और उस पत्र में भी लिख दिया कि इसकी प्रतियाँ प्रधान कार्यालय के किस-किस वरिष्ठ अधिकारी को भेजी जा रही हैं।
मेरे पत्र को पढ़कर उनके होश ठिकाने आ गये। उन्हें लगा कि यदि हैड आॅफिस तक यह बात पहुँच गयी, तो उनका बहुत मजाक बनेगा और इमेज भी खराब होगी। इसलिए वे समझौते की बात करने लगे। उन्होंने मुझे समझौते के लिए बुलाया। उन्होंने कहा कि आप मेरी किताबें लौटाने वाली बात मान लीजिए और मैं आपकी सारी बातें मान लूँगा। वे पूछने लगे कि मैं क्या चाहता हूँ। मैंने कहा कि मैं गौड़ साहब के समय जो-जो कार्य कर रहा था, उनको वापस चाहता हूँ। इस पर वे राजी हो गये और सारे कार्य मुझे वापस मिल गये। मैंने उनसे यह भी कहा कि मैंने हमेशा आपको सहयोग दिया है और आगे भी देता रहूँगा। समझौता हो जाने के अगले ही दिन मैं चंडीगढ़ से तीनों किताबें खरीद लाया और बैंक की किताबें वापस कर दीं।
वह परीक्षा मैंने एक बार में ही पास कर ली थी और परीक्षा पास करते ही सबसे पहले मैंने वे तीनों किताबें संस्थान के पुस्तकालय को ही दान कर दीं, क्योंकि अब वे मेरे किसी काम की नहीं रही थीं और अन्य अधिकारी उनसे लाभ उठा सकते थे।
इसके बाद बांगिया जी के व्यवहार में कुछ सुधार हुआ। मैंने प्रधान कार्यालय भेजने के लिए अपने पत्र की जो प्रतियाँ तैयार की थीं, वे मैंने कभी नहीं भेजीं, क्योंकि मैं केवल बांगिया जी को डराना चाहता था और वास्तव में उनको कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहता था। इसलिए अपना काम बनते ही मैंने वे पत्र फाडकर रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिये।
दो नये अधिकारी
एक बार बांगिया जी नये अधिकारियों के चयन के लिए इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य बनाये गये। वे इंटरव्यू लेने दिल्ली गये। जब वहाँ से लौटे, तो सबके सामने कहने लगे कि मैंने एक ऐसा अधिकारी इस संस्थान के लिए चुना है, जो बहुत ही योग्य है और हीरे जैसा है। सबको बहुत प्रसन्नता हुई। कुछ दिन बाद ही स्केल 2 के दो अधिकारियों के हमारे संस्थान में आगमन की सूचना प्राप्त हुई। वे थे- एक, श्रीमती गुंजन यादव और दूसरे श्री नजमुद्दीन। पहले उनके बैठने के लिए बांगिया जी ने मेरा कमरा चुना। वहाँ केवल एक अधिकारी और बैठ सकता था। लेकिन मैंने कहा कि बाहर पहले से ही दो अधिकारियों के लिए स्थान खाली है, वहीं बैठा दीजिए। अगर कोई असुविधा होगी, तो बाद में देख लेंगे। इस पर वे मान गये। बांगिया जी ने मुझसे कहा कि जो सीटें उनके बैठने के लिए तय की हैं, उन पर उनके लिए ‘स्वागत सन्देश’ लगा दो। मैंने कहा- ठीक है, लग जाएगा। व्यंग्य में मैंने यह भी कहा कि उनके स्वागत में एक बैनर बनवाकर गेट पर लगा दिया जाए। इस पर वे नाराज होकर वहाँ से चले गये।
खैर, जब वे अधिकारी आये, तो सब बहुत खुश हुए। बांगिया जी नजमुद्दीन को हीरा आदमी बता रहे थे। लेकिन एक सप्ताह में ही सबको और स्वयं बांगिया जी को भी पता चल गया कि यह आदमी परले दर्जे का मूर्ख और गधा है। उसे किसी भी चीज का ज्ञान नहीं था, यहाँ तक कि कम्प्यूटर के बारे में प्राथमिक ज्ञान भी नहीं था। उसमें न तो सीखने की ललक थी और न योग्यता ही। उसका मानसिक स्तर बहुत कम था। वास्तव में उसके पिता कहीं सरकारी डाक्टर थे और उन्होंने किसी तरह उसे किसी घटिया कालेज में इंजीनियरिंग में प्रवेश दिला दिया था। वहाँ से वह डिग्री भी ले आया था, लेकिन सीखा कुछ नहीं था। यह जानकर सबने सिर पीट लिया और समझ लिया कि यह एक-दो तो क्या 10-20 साल में भी साॅफ्टवेयर बनाना या सुधारना नहीं सीख सकता। इसलिए उसे कोई जिम्मेदारी का काम देना सम्भव ही नहीं था। ऐसे आदमी का चयन बांगिया जी ने किया था, इसलिए पीठ पीछे सब उनका भी मजाक बनाते थे।
वाह ! आपने जिस तरह से बांगिया जी को सबक सिखाया वो काबिले तारीफ है |
vichaare baangia ji .
सही बात है, भाई साहब ! उनके ऊपर तरस ही खाया जा सकता है।
आज की किश्त मुख्यतः बांगिया जी के व्यवहार व कार्यों पर केंद्रित है। उनमे आपके प्रति सद्भावपूर्ण व्यव्हार की कमी है। उनके जीवन व व्यक्तित्व में कुछ त्रुटियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर ! मुझे स्वयं आश्चर्य है कि बांगिया जी ने ऐसा व्यवहार मेरे साथ क्यों किया, जबकि मैंने कभी उनका कोई बुरा न किया न चाहा. ईर्ष्या ही इसका एकमात्र कारण हो सकती है. खैर, जिसने जैसा किया, वैसा फल पाया. यह प्रभु का अटल विधान है.
किताब दान करना अच्छा लगा
धन्यवाद बहिन जी! लेकिन यह बात अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मैंने बांगिया जी को किस तरह ठीक किया।