महर्षि दयानंद का एक ऐतिहासिक उपदेश
ओ३म्
महर्षि दयानन्द धर्म, वेद, मत-मतान्तर, सामजिक विज्ञान सहित भारत के इतिहास के भी गम्भीर व मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके लम्बे उपदेश के दो भाग हम प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख में उनसे आगे का उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। इनका महत्व इतना ही है कि हम सत्य को जाने और इतिहास में की गई अपने पूवजों की गलतियों का सुधार करें। यदि ऐसा नहीं करते तो इतिहास की पुनरावृत्ति होने का डर बना रहता है। ऐसा न हो कि हम पुनः गलतियां करें और हमें पूर्व की भांति हानि उठानी पड़े। पूर्व लेखों के क्रम में उनके बाद देश में घटी घटनाओं का यथार्थ वर्णन करने वाले उपदेश किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत हैं।
महर्षि दयानन्द अपने उपदेश में कहते हैं कि एक महमूद गजनवी इस देश में आया और बहुत सी सोने और चांदी की मूर्तियां लूट ली। बहुत पुजारी और पण्डित पकड़ लिये और रात को पिसान पिसावे और दिन में जाजरूर आदि को सफा करवाये। और जहां कोई पुस्तक पाया उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। ऐसे वह आर्यावर्त्त में बारह बार आया और उसने बहुत लूट मार एवं अत्यन्त अन्याय किया। उसने इस देश की बड़ी दुर्दशा की। यहां तक कि शिरच्छेदन बहुतों का कर दिया। विना अपराधों के स्त्री, कन्या और बालकों को भी पकड़ के दुःख दिया और बहुतों को मार डाला, ऐसा उसने बड़ा अन्याय किया।
सो जिस देश में ईश्वर की उपासना छोड़ कर काष्ठ, पाषाण, वृक्ष, घास, कुत्ते, गधे और मिट्टी आदि की पूजा की जाती हो वहां ऐसा ही फल होगा, उत्तम कहां से होगा। फिर चार ब्राह्मणों ने एक लोहे की पोली (खोखली) मूर्ति बनवाई और उसको गुप्त कहीं रख दिया। फिर चारों ने लोगों को कहा कि हम को महादेव ने स्वप्न दिया है कि हमारा आप लोग मन्दिर बनवायें तो कैलाश को छोड़ के आर्यावर्त्त देश में मैं निवास करूं और सबको दर्शन दूं। प्रचार द्वारा ऐसा सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया। फिर मन्दिर सब लोगों ने मिल के बनवाया। उसमें नीचे ऊपर और चारों ओर भीत में चुम्बक पत्थर रक्खे। जब मन्दिर पूरा हुआ, तब सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया कि उस दिन मध्य रात्रि में कैलाश से महादेव मन्दिर में आवेंगे जो दर्शन करेगा उसका बड़ा भाग्य और मरने के पीछे वह कैलाश को चला जायगा। फिर उस समय में राजा, बाबू, स्त्री, पुरुष और लड़के बालायें उस स्थान में जुटे। उन चारों धूर्त्तों ने मूर्ति मन्दिर में कहीं गुप्त रख दी थी और मेला में ऐसा प्रसिद्ध कर दिया कि महादेव देव हैं सो भूमि को पग से स्पर्श न करेंगे, किन्तु आकाश में ही खड़े रहेंगे। ऐसा हमको स्वप्न में कहा है सो जब उस दिन पहर रात्रि गई तब सब को मन्दिर के बाहर निकाल दिए और किवाड़ बन्द करके वह चारों ब्राह्मण भीतर रहे। फिर उस मूर्ति को उठाके मन्दिर में ले गए और बीच में चुम्बक पाषाण के आकर्षणों से अधर आकाश में वह मूत्र्ति खड़ी रही और उन्होंने खूब मन्दिर में दीप जोड़ दिए फिर घण्टा, झल्लरी, शंख, रणसिंघा और नगारा बजाए। तब तो मेले में बड़ा उत्साह हुआ और उन्होंने दरवाजे खोल दिए। फिर मनुष्यों के ऊपर मनुष्य गिरे और मूर्ति को आकाश में अधर खड़ी देख के बड़े आश्चर्य युक्त हुए और लाखों रुपयों की पूजा चढ़़ी। अनेक पदार्थ पूजा में आए। फिर वे चारों धूर्त ब्राह्मण बड़े मस्त हो गए और महन्त हो गए। फिर नित्य मेला होने लगा और वहां करोडों रुपयों का माल इकट्ठा हो गया। सो वह मन्दिर द्वारका के पास प्रभा क्षेत्र स्थान में था और उस मूर्ति का नाम सोमनाथ रक्खा था। फिर महमूद गजनवी ने सुना कि उस मन्दिर में बड़ा माल है। ऐसा सुनके अपने देश से सेना लेके चढ़ा। सो जब पंजाब में आया, तब हल्ला हो गया और सोमनाथ की ओर चला तब लोगों ने जाना कि सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ेगा और लूटेगा। ऐसा सुन के बहुत से राजा, पण्डित और पुजारी सेना ले-ले के सोमनाथ की रक्षा हेतु इकट्ठे हुए। सोमनाथ के पास जब वह डेढ़ सौ दो सौ कोस दूर रहा, तब पण्डितों से राजाओं ने पूछा कि मुहूर्त देखना चाहिए। हम लोग आगे जाके उनसे लड़े। फिर पण्डित लोगों ने इकट्ठे होके मुहूर्त देखा, परन्तु मुहूर्त बना नहीं। फिर नित्य मुहूर्त ही देखते रहे, परन्तु कोई दिन चन्द्र, कोई दिन और ग्रह नहीं बने, कोई दिन दिक् शूल सन्मुख आया, कोई दिन योगिनी और कोई दिन काल नहीं बना। सो पण्डितों की बुद्धि को कालादिकों के भ्रमों ने खा लिया और राजा लोग विना पण्डितों की आज्ञा से कुछ करते नहीं थे। सो प्रायः पण्डित और राजा लोग मूर्ख ही थे। जो मूर्ख न होते तो पाषाणादि मूर्ति क्यों पूजते और मुहूर्तादिकों के भ्रमों से नष्ट क्यों होते? ऐसे विचार वह करते ही रहे, उस महमूद की सेना दूसरी मंजिल पर पहुंची, तब राजा लोगों ने पण्डितों से कहा कि अब तो जल्दी मुहूर्त देखों। तब पण्डितों ने कहा कि आज मुहूर्त अच्छा नहीं है। जो यात्रा करोगे तो तुम्हारा पराजय ही हो जायगा। तब वे ब्राह्मणों से डर के बैठे रहे। तब महमूद गजनवी धीरे-धीरे पांच छः कोश के ऊपर आकर ठहरा और दूतों से सब खबर मंगवाई कि वह क्या करते हैं? दूतों ने कहा कि वह आपस में मुहूर्त विचारा करते हैं। महमूद गजनवी के पास 30 हजार पुरुषों की सेना थी, अधिक नहीं और उनके पास दो, तीन लाख फौज थी। फिर उसके दूसरे दिन प्रातःकाल राजा पण्डित पुजारी मिल के मुहूर्त विचारने लगे। सो सब पण्डितों ने कहा कि आज का चन्द्रमा अच्छा नहीं और भी ग्रह क्रूर हैं। पुजारी लोग और पण्डित मूर्ति के आगे जा के गिर पड़े और अत्यन्त रोदन किया कि हे महाराज ! इस दुष्ट (काल-मुहूर्त) को खा लो और अपने सेवकों का सहाय करो। परन्तु वह लोहा क्या कर सकता है। और सब से कहने लगे कि आप लोग कुछ चिन्ता मत करो महादेव उस दुष्ट को ऐसे ही मार डालेंगे वा वह महादेव के भय से वहां से ही भाग जायेगा, उसका क्या सामर्थ्य है कि साक्षात् महादेव के पास आ सके और सन्मुख दृष्टि कर सके। ऐसे सब परस्पर बक(वास कर) रहे थे। फिर कुछ लड़ाई हुई और मुसलमान भी डरे कि विजय होगा वा पराजय? उस समय में (हमारे पण्डित) पुस्तक फैला-फैला के बहुत से मन्त्रों का जप और पाठ करते थे और कहते थे कि अब हमारा देवता और मन्त्र पाठ सिद्ध होता है सो वह वहां ही अन्धा हो जायगा। सो बड़ी मण्डली की मण्डली जप, पाठ और पूजा कर रही थी और मूर्ति के सामने औंधे गिर के पुकारते थे। एक सभा लग रही थी जिसमें राजा और पण्डित मुहूर्त को विचारते थे।
उस समय में उसके निकट एक पर्वत था और महमूद गजनवी ने एक तोप लगा दी और सभा के बीच में गोला मारा। उस समय कोई दन्तधावन करता था, कोई सोता था और कोई स्नान करता था, इत्यादि व्यवहारों से निश्चिन्त थे। सो उस गोले से सब पण्डित लोग पोथी पत्रा छोड़ के भागे और राजा लोग भी भाग उठे तथा सेना भी अपने-अपने स्थानों से भाग उठी और वह महमूद गजनवी सेना सहित धावा करके उस स्थान पर झट पहुंचा। उसको देख के सब भाग उठे। भागे हुए पण्डित, पुजारी, सिपाही तथा राजाओं को उसने पकड़ लिया और बांध लिया और उनके ऊपर बहुत-सी मार पड़ी तथा किसी को मार भी डाला और बहुत से भाग गए क्योंकि उन पण्डितों के उपदेश से वह सोलह पहर के बैठे थे और कथा सुनी थी कि मुसलमानों का स्पर्श नहीं करना और उनके दर्शन से धर्म जाता है,? ऐसी मिथ्या बातें सुनने के कारण भाग उठे। फिर मन्दिर के चारों ओर महमूद गजनवी की सेना हो गई और महमूद आप मन्दिर के पास पहुंचा, तब मन्दिर के महन्त और पुजारी हाथ जोड़ के खड़े हुए। महमूद को पुजारियों ने कहा कि आप जितना चाहें उतना धन ले लीजिए परन्तु मन्दिर और मूर्ति को न तोडि़ए, क्योंकि इससे हम लोगों की बड़ी आजीविका है। ऐसा सुनके महमूद गजनवी बोला कि हम बुत पूजने वाले नहीं किन्तु उनको तोड़ने वाले हैं। तब तो वे डरे और कहा कि एक करोड़ रुपया आप ले लीजिए परन्तु इसको मत तोडि़ए। ऐसे कहते सुनते तीन करोड़ तक कहा, परन्तु महमूद गजनवी ने नहीं माना और उनकी मुसक चढ़ा ली फिर उनको लेके मन्दिर में गया और उनसे पूछा कि खजाना कहां है सो कुछ तो उन्होंने बतला दिया। फिर भी उसको लोभ आया कि और भी कुछ होगा। फिर उनको मारा पीटा तब उन्होंने सब खजाना बतला दिया। फिर मन्दिर में आके सब लीला देखी। फिर महन्त और पुजारियों से कहा कि तुमने दुनिया को ऐसी धूर्तता कर के ठग लिया क्योंकि लोहे की तो मूर्ति बनाई है। इसके चारों ओर चुम्बक पाषाण रखने से आकाश में यह मूर्ति अधर में खड़ी है। फिर उस मन्दिर का शिखर उन्होने तोड़वा दिया। जब वह चुम्बक पाषाण अलग हो गया, तब मूर्ति जमीन में चुम्बक-पाषाण में लग गई। फिर सब भीतें तोड़वा डाली। सब चुम्बकों के निकलने से मूर्ति जमीन में गिर पड़ी। फिर महमूद गजनवी ने अपने हाथ से लोहे के घन को पकड़ के उस मूर्ति के पेट में मारा। उससे मूर्ति फट गई। उससे बहुत जवाहिरात निकला क्योंकि हीरा आदि अच्छे-अच्छे रत्न वे पण्डित पाते थे, तब मूर्ति में ही रख देते थे। फिर महमूद ने उन महंत और पुजारियों को खूब तंग किया और फुसलाया भी। फिर उन्होंने भय से बतला दिया, जो कुछ था उसने सब ले लिया। सो अठारह करोड़ का माल उस मन्दिर से उसने पाया। फिर बहुत सी गाड़ी, ऊंट और मजूर उसके पास थे और भी वहां से पकड़ लिए। उनके ऊपर सब माल को लाद के अपने देश की ओर चला। सो थोड़े से थोड़े पण्डित, महंत और पुजारी तथा क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र तथा स्त्री, बालक दश हजार तक पकड़ के संग में ले लिए थे। उनका यज्ञोपवीत तोड़ डाला, मुख में थूक दिया और थोड़े-थोड़े सूखे चने नित्य खाने को देता था और जाजरूर सफा करवावे, पिसवावे, घास छिलवावे और घोड़ों की लीद उठवावे और मुसलमानों के जूठें बरतन मजवावे और सब प्रकार की नीच सेवा उनसे ली। ऐसे कराता-कराता जब मक्का के पास पहुंचा, तब अन्य मुसलमानों ने कहा कि इन काफरों का यहां रखना उचित नहीं। फिर उनको बुरी दशा से मार डाला ( …… इत्यादि)। ऐसे ही बारह दफे वह आया है और दो तीन बार मथुरा की भी दुर्दशा ऐसी ही की थी। और जहां-जहां वह गया था, वहां-वहां ऐसी ही दुर्दशा उस देश की की थी और डाकू की नांई वह आता था, मार के जो कुछ पाता था, सो अपने देश में ले जाता था। उस दिन से मुसलमान लोग दरिद्र से धनाढ्य हो गए हैं। सो आर्यावर्त्त के प्रताप से आज तक भी धन चला आता है और आर्यावर्त्त देश अपने ही दोषों से नष्ट होता जाता है।
लिये हमको बड़ा दुःख है कि ऐसा जो देश और इस प्रकार का धन जिस देश में है सो देश बाल्यावस्था में विवाह, विद्या का त्याग, मूत्र्ति पूजनादि पाखण्डों की प्रवृत्ति, नाना प्रकार के मिथ्या मजहबों का प्रचार, विषयासक्त और वेद विद्या का लोप, जब तक यह दोष रहेंगे, तब तक आर्यावर्त्त देशवालों की अधिक अधिक दुर्दशा ही होगी और जो सत्य विद्याभ्यास तथा सुनियम, धर्म और एक परमेश्वर की उपासना इत्यादि गुणों को ग्रहण करें तो सब दुःख नष्ट हो जायं और अत्यन्त आनन्द में रहें।
महर्षि दयानन्द ने आर्यावर्त्त में मूर्तिपूजा के प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया है। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक बन्धु भी शामिल है, इन तथ्यों को यथावत् नहीं जानते। सत्य को जानना व मानना तथा असत्य को छोड़ना व दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास की इस इन भूलीबिसरी घटनाओं को जानकर इनसे शिक्षा ग्रहण करेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
उत्कृष्ट लेख सर
हार्दिक धन्यवाद श्री वैभव जी।
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार श्री वैभव जी।
हार्दिक धन्यवाद श्री वैभव जी।