मेरी कहानी – 55
कॉलेज में मैंने चार साल पढ़ाई की और सच कहूँ तो यह चार साल वक्त ही पास किया क्योंकि ना तो कोई निशान था कि पढ़ कर किया करना था और ना ही मैं इतना होशियार था जितना पहले सालों में था, यह कहना उचित होगा कि मैं एक ऐवरेज विद्यार्थी ही था । बस कॉलेज जाते और आ जाते। इन चार सालों में ना ही हम ने फगवारे कोई कमरा लिया। हम बयबड़े हो चुके थे और वोह शरारतें करने के दिन अब रहे नहीं थे। पॉलिटैक्निक कालज किस्मत में था नहीं जिससे मुझे बहुत कुछ हासिल हो सकता था और यह कोर्स भी तीन साल का ही था लेकिन यह सब रीवर्स भी नहीं हो सकता था। अब अच्छे अच्छे कपडे पहनने का शौक हो गया था। कभी ट्राऊज़र नीचे से खुला हो जाता ,कभी टाइट हो जाता। जैसे हम दरजी को कहते वैसे ही वोह बना देते। रैडी मेड कपड़ों का रिवाज़ उस वक्त होता नहीं था। शर्ट्स के नए नए फैशन आते और हम उस की ही कॉपी करते और दरजी को उसी तरह बनाने के लिए कह देते। फगवारे में कपडे की एक दूकान होती थी “गुरु नानक” क्लाथ हाऊस जो जेजे हाई स्कूल के सामने ही थी , जिस में रैगुलर हम जाते रहते थे यहां से अच्छे से अच्छा कपडा खरीद लाते थे और दरजी होता था लंदन टेलरिंग जो गो शाळा रोड पर होता था जो बरात घर के साथ ही था । यह नए नए फैशन निकालते थे ।
लेकिन एक बात थी कि धोबी से कपडे हम बहुत कम धुलवाते थे और खुद ही धोते थे और इन को प्रैस भी खुद ही करते थे और ट्राऊज़र को क्रीज़ देने के लिए हम गीला कपडा ऊपर रख कर प्रैस करते थे ,जिस से ट्राऊज़र की क्रीज़ें ऐसी हो जाती थीं जैसे छुरी की तीखी धार हो। इन क्रीज़ों का हम बहुत खियाल रखते थे क्योंकि इन क्रीज़ों की वजह से ही बात बनती थी। जो प्रैस होती थी ,वोह कोयले से गर्म होती थी , प्रैस काफी भारी होती थी और इस में कोयले डाल कर और एक दो छोटी छोटी लकड़ीआं डाल कर आग लगाते और पंखे से हवा देते थे ,जिस से प्रैस में पड़े कोयले आग से लाल हो जाते थे ,जिस से प्रैस गर्म हो जाती थी और सारे कपडे प्रैस कर लेते थे। यह प्रैस अभी भी घर में कहीं पडी है और छोटे भाई ने संभाल कर रखी हुई है।
रेलवे रोड और जीटी रोड के चौंक पर उस वकत बहुत रौनक होती थी। एक तरफ छोटा सा बस अड्डा होता था जिस पर एक बहुत बड़े मंजे ( बड़ी चारपाई ) पर कुछ बस ड्राइवर लेटे हुए होते थे और जीटी रोड की दूसरी तरफ बहुत सी दुकानें होती थीं। इन दुकानों के सामने दो बोहड़ के दरख्त होते थे , जिस के नीचे रिक्शों वाले , अख़बार बेचने वाले और अन्य मज़दूर बैठे होते थे। इन दरख्तों के नज़दीक एक लळारी की दूकान होती थी। यह लळारी खुद कपड़ों और ख़ास कर पगड़ीओं को रंग और मावा देता था। कुछ छोटे छोटे लड़के उस के पास काम करते थे और यह लड़के पगड़ीओं को दोनों ओर से पकड़ और हिला हिला कर सुखाते थे। इस लळारी से हम बातें बहुत किया करते थे। यह शख्स देखने को तो इतना बूढ़ा नहीं लगता था लेकिन कहा करता था कि जब मलिका विक्टोरिआ मरी थी तो उस वक्त वोह जवान था और उसको हर बात का पता था ,पता नहीं क्या सच था क्या झूठ था ,हम तो बातें ही सुना करते थे।
जीत इस शख्स को जब अपनी पगड़ी देता था तो साथ ही कहा करता था , ” चाचा ! मेरी पगड़ी को मावा इतना लगाना कि एक तरफ से पगड़ी हाथ से पकडूँ तो सीधी खड़ी हो जाए”. वोह हंस पड़ता था। आज तो मावे का रिवाज़ ही खत्म हो गिया है लेकिन उस समय मावे के बगैर पगड़ी कोई बांधता ही नहीं था। इस के नज़दीक ही लुभाया राम की आलू चनों की रेहड़ी थी ,जिस पर हम चने कुलचे का मज़ा लेते थे। छोटी सी अंगीठी पर चनों की बड़ी सी प्रात होती थी जिस में चने रखे होते थे. जब हम लुभाये को चने कुलचे का आर्डर देते तो उस का चनों को प्लेट में डालने का एक अजीब सा अंदाज़ होता था। पहले वोह प्रात में से एक बड़े चमचे से प्लेट में चने डालता ,फिर कुछ बर्तनों में से बहुत किस्मों की थोड़ी थोड़ी तरी डालता , एक चटनी डालता ,फिर कुछ कटे हुए प्याज़ के छोटे छोटे टुकड़े डालता ,कुछ उबले हुए आलुओं के टुकड़े डालता जो हल्दी से रँगे हुए होते थे , चनों को चमचे से मिक्स करता और साथ ही एक हरी मिर्च साथ रख देता। बस यह उस का अंदाज़ भूख को चमका देता था और उस के इसस अंदाज़ से चनों के साथ कुलचे बहुत स्वादिष्ट लगते थे।
लुभाया राम की रेहड़ी और उस के साधारण कपड़ों से लगता था कि लुभाया एक गरीब और साधारण से मकान में रहता होगा लेकिन बहुत वर्षों बाद जब मैं भारत आया हुआ था तो लुभाया राम को मिलने चला गिया। लुभाया अभी भी वहीँ था और मुझे देख कर बहुत खुश हुआ। बातें करने लगे तो लुभाया राम ने बताया कि उस ने मॉडल टाऊन में नई कोठी बनवाई थी और उस के दो बेटे अमरीका या कैनेडा (पूरा याद नहीं ) चले गए थे। मॉडल टाऊन, टाऊन हाल के साथ का इलाका था जो किसी समय दूर दूर तक बेकार पड़ा हुआ था और एक दफा इस जगह जवाहर लाल नेहरू जी यहां आये थे। लाखों की तादाद में इस जगह पर लोग एकत्र हुए हुए थे ,बहुत बड़ी ऊंची स्टेज लगी हुई थी और कुछ लोग भाषण दे रहे थे। शायद इलेक्शन का वक्त था और एक नेता जोर से नाहरा लगाता ” गूंजे धरती देश पताल ” सामने बैठे सारे लोग जोर शोर से बोलते ,” देश का नेता जवाहर लाल “। नेहरू जी आये और तकरीबन पंदरा मिनट भाषण दिया और चले गए थे। उस वक्त मैं बहुत छोटा सा था और इसी जगह पर बहुत अच्छी नए ज़माने की कोठियाँ बननी शुरू हो गई थीं। जब यह कोठियाँ बननी शुरू हुई तो शायद उस वक्त १९५५- ५६ होगा ,पूरा याद नहीं। और इसी मॉडल टाऊन में ही कहीं लुभाया राम ने कोठी बनाई होगी। लुभाया राम से कोठी की बात सुन कर मैं हैरान हो गिया था कि इस आलू छोले की रेहड़ी से इतनी आमदनी होती होगी ?
लुभाया राम की रेहड़ी के नज़दीक एक अखबार बेचने वाला होता था। इस की कलाई पर अखबारों का एक बण्डल रखा होता था ,नाम तो पता नहीं लेकिन वोह हर कुछ मिनट बाद बोलता रहता था ,अजीत ,प्रभात, मिलाप,हिन्द समाचार ले लो जी। इस शख्स के हाथ में हमेशा ही सिगरेट होती थी और उस की उँगलियाँ सिगरेट के धुएं से पीली हो गई थीं , उस के दांत पान और तंबाखू से लाल लाल रंगे होते थे जो देखने में बहुत बुरे लगते थे। एक दुबला सा साधू होता था जो सारा दिन फगवारे में मांगता रहता था और फिर इस बोहड़ के नीचे बैठ जाता था। इस साधू से हम बहुत नफरत किया करते थे। यह छोटा सा लंगोट पहने हुए होता था ,गले में निम्बूओं की माला होती थी ,एक दो छोटी छोटी देवी देवताओं की फोटो गले में लटकाई होती थी , माथे और शरीर पर भवूती मली हुई होती थी और माथे पर ही होती थी लाल रंग की लकीरें। देखने में भूत जैसा दिखाई देता था। जब मांगता तो बोलता नहीं था , हाथ के इशारे से ऐसे मांगता जैसे कहता हो “निकाल पैसे !”. उस की इसी अदा पे हम को बहुत नफरत आती थी और हम उस को झिड़क देते थे लेकिन वोह इतना ढीठ होता था कि फिर भी हम से मांगने से कतराता नहीं था।
पास ही एक छोटा सा ढाबा होता था जिस पर छोटे छोटे लड़के काम करते थे। रिक्शे वाले भी यहाँ आ कर गप्पें हांकते रहते थे। यह जगह बहुत ही रमणीक होती थी ,बहुत रौनक होती थी। यह सब लिखने को मुझ से रहा नहीं गिया क्योंकि यह बोहड़ वाली जगह एक इतिहास ही बन कर रह गई है और इस जगह अब बहुत कुछ बन गिया है। इस जगह के सड़क की दूसरी और ही लच्छू का ढाबा होता था जिस का ज़िकर मैं कर चुक्का हूँ।
फगवारे की एक एक चीज़ उसी तरह मेरे ज़हन में है जैसे अब भी मैं वहां ही हूँ और कॉलेज में पढ़ रहा हूँ। कॉलेज में हमारे इंग्लिश के प्रोफेसर पियारा सिंह पता नहीं कहाँ चले गए थे और उन की जगह नए प्रोफेसर रणजीत सिंह आ गए थे। यह मॉडल टाऊन की एक कोठी में किराए पर रहते थे। यह बहुत अच्छे इंसान थे। अब हम भी कुछ कुछ अंग्रेजी समझने लग गए थे। रणजीत जब भी क्लास में आते ,पहले एक शेर बोलते या कोई छोटी सी कहानी बोलते और फिर लैक्चर शुरू करते। एक दिन आये , आते ही बोले ,” रात का समय , सुनसान कब्रिस्तान , आंधी चल रही ,बूढ़ा कबरस्तान में धीरे धीरे घूम रहा ,तभी एक कबर से एक आदमी निकला , बूढ़े ने उस की तरफ देखा , कबर से निकला शख्स बोला , जानना चाहते हो ? यह शहर ख़मोशां है , मर मर के बसाया है ” , पूरा शेर मुझे याद नहीं लेकिन यह बहुत ही जबरदस्त शेर था। इस के बाद रणजीत ने अपना लैक्चर शुरू किया।
एक बात और थी कि रणजीत सिंह की अंग्रेजी हमें बहुत अच्छी तरह समझ आती थी और हम धियान से उस का पूरा लैक्चर सुनते थे। एक किताब होती थी जिस का नाम शायद अनापूरना था या कुछ और याद नहीं लेकिन यह होती थी एक फ्रेंच माऊंटेनियर्ज़ की टीम की अनापूरना पहाड़ की चोटी पर पौहंचने की दास्ताँ । यह एक सच्ची कहानी थी और इस में पहाड़ पर चढ़ने के दौरान उन की तकलीफें बहुत अच्छे ढंग से वर्णन की गई थीं। एक थी शेक्सपिअर की “THE TEMPEST”. यह शेक्सपिअर का लिखा ड्रामा था जो पुरानी इंग्लिश में लिखा हुआ था जो उस समय प्रचलित थी। रणजीत सिंह हमें उन पुराने लफ़्ज़ों को समझाते और हमें समझ आता और बहुत अच्छा लगता। यह टैम्पेस्ट की कहानी होती थी , एक राजा की ,जिस के भाई ने उस से गद्दी छीन कर उस को और उस की बेटी को एक छोटी सी कश्ती में समुन्दर के पानी में धकेल दिया था। इस बेटी का नाम था “MIRANDA”. कहानी काफी दिलचस्प थी जिस में कुछ जादू भी है और एक स्त्री जो नीचे से मछली थी उस के बारे में अक्सर क्लास में हंसी हो जाती थी। एक किताब होती थी कविताओं की ,जिस में वर्ड्ज़वर्थ ,मिल्टन, अलेग्ज़ाँडर पोप , एडगर एलन पो और अन्य कविओं की कवितायेँ होती थी। एक थी शौर्ट स्टोरीज़ की जिस में एक कहानी होती थी ” दी अगली डक्लिंग” और एक और थी ” दी फ्लाई “.
जिस दिन रणजीत के घर बेटा पैदा हुआ था उस दिन सभी विद्यार्थी बहुत हंसी मज़ाक के मूड में थे। रणजीत सिंह के क्लास में आने से पहले ही मैंने ब्लैक बोर्ड पर पंजाबी में लिख दिया ,” प्रोफेसर जी वधाईआं बेबी !”. जब रणजीत सिंह आये तो आते ही ब्लैक बोर्ड पर नज़र डाली और मुस्करा दिए। सभी लड़के और लड़कियाँ हंस पड़े। क्लास में दो बहने होती थीं , वसुदा और बीना। यह दोनों भी जोर जोर से हंस पड़ीं। उन के साथ ही बैठी थी फगवारे के जेनरल पोस्ट ऑफिस के पोस्ट मास्टर की लड़की जिस का नाम तो याद नहीं लेकिन उस का रोल नंबर होता था ९८। यह लड़की पढ़ने में बहुत होशियार थी और खूबसूरत भी बहुत थी। सारे लड़के उस को ९८ ही कहते थे। क्लास का वातावरण बहुत ही अच्छा होता था।
बहुत वर्षों बाद जब मैं भारत आया तो एक दिन फगवारे में अपने बाइसिकल पर घूम रहा था कि सामने से रंजीत सिंह आता हुआ दिखाई दिया। रंजीत सिंह ने घंटी बजाई और हम साइकलों से उत्तर पड़े। रणजीत ने खुश हो कर मुझ से हाथ मिलाया और चाय की ऑफर की जो मैं इंकार नहीं कर सका। बहुत सी बातें हुईं , उसने मुझ से इंग्लैण्ड के बारे में बहुत सवाल पूछे जिस का जवाब मैंने दिया कि जो हम यहां समझते थे वोह है नहीं था और ज़िंदगी बहुत कठिन थी। मैंने सच्ची सच्ची बातें बताईं जिस को सुन कर रणजीत सिंह बहुत हैरान हुआ। फिर कहने लगा कि मुझे कालज की कौन सी याद ज़्यादा आती थी तो मैंने मज़ाक में जवाब दिया था “९८” जिस को सुन कर रणजीत सिंह हंस पड़ा। उस ने मुझे अपनी कोठी का नंबर बताया और मुझे वहां आने की दावत दी लेकिन मैं जा नहीं सका क्योंकि मैं तो अपनी शादी के चक्कर में ही व्यस्त था और सारा ध्यान पत्नी की ओर ही था।
चलता………………………
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की किश्त अच्छी लगी। लगता है कि कॉलेज में आपका पढाई में मन नहीं लगा। शायद अच्छे मित्रो का आभाव रहा होगा। संगती का जीवन, कार्यों एवं व्यवहार पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यह पहली बार सुना कि किसी की पहचान या सम्बोधन अंको में जैसे “९८” भी हो सकता है। हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी ,धन्यवाद . इस को क्या कहूँ , यह भी नहीं था कि मैं पड़ाई में इतना बुरा नहीं लेकिन जैसा आप ने लिखा शाएद संगत का भी परभाव पड़ा था .मुझे खुद को समझ नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ .
बहुत रोचक संस्मरण, भाईसाहब. कालेज जीवन मस्ती भरा होता है।
वजय भाई , वोह जीवन ही ऐसा था जिस कहते हैं मेक या ब्रेक हो जाता है ,मेरा तो ब्रेक ही हुआ था ,इस के बहुत से कारण थे लेकिन अब उन पर पछतावा करना उचित नहीं होगा .
रोचक कहानी अंश
धन्यवाद बहन .