सत्रहवीं व अठारहवीं शताब्दी में इंग्लैंड के लोगों को चाय पीने का जो चस्का लगा उसका सानी इतिहास में नहीं है। हॉलैंड की राजकुमारी एन जब ब्याह कर ब्रिटेन आई तब एक दिन अकेलेपन और आलस्य से ऊबकर उसने शाम के पांच बजे अपनी सखियों को एकत्र किया और चाय की पार्टी की। बस तभी से सभी सामंतवर्गी स्त्रियां ,विदेश में धन अर्जित करने गए हुए पुरुषों की अनुपस्थिति में ,इसी प्रकार अपना और औरों का मनोरंजन करने लगीं। यहां तक कि चाय पिलाना उस युग का सबसे बड़ा फैशन बन गया। सामाजिक पदोन्नति का सोपान ! चाय पार्टियों की कलात्मकता प्रसिद्धि का मापदंड बन गयी। यह स्त्रियां बहुत शिक्षित व अनेक कलाओं में दक्ष होती थीं। ऐसी ही एक पार्टी का चित्रण हमें प्रसिद्ध कवि एलेग्जेंडर पोप की लम्बी कविता ,” दी रेप ऑफ़ दी लॉक ” ( The Rape Of The Lock ) में मिलता है।
इस काल के सामंतवर्ग में धन की प्रचुरता थी। इंग्लैंड वासी अन्य देशों में जाते ,अन्य संस्कृतियों के सानिद्ध्य में नयी नयी बातें सीखते। धन और अनुभव कमाते। अन्य देशों की परम्पराओं का अध्ययन करते व घर आकर अपनी सड़ी- गली प्रथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते। विशेषकर हिन्दू द्वीपों में परिवार की संरचना व उसका महत्त्व ,जिम्मेदारी की भावना ,विवाह संस्था आदि बेहद पुष्ट थी। इंग्लैंड में विवाह केवल वही पुरुष कर पाते थे जिनकी कमाई ठीक- ठाक हो। . आम जनता केवल संग साथ से ही काम चला लेती थी जो बदलते रहते थे। इससे बच्चों का विकास अंधकारमय हो जाता था।
कंपनी की नौकरियों में जुटे कम उम्र के युवा पुरुष सामजिक व आर्थिक औक़ात की पायदानें छलांग लगाकर लांघ रहे थे। ऊपर पहुंचकर अपने बुजुर्ग ,भ्रष्ट ,व विलासी सामंतों की खिल्ली उड़ाते थे। चाय पार्टियां अब अमीर स्त्रियों का व्यसन बन गईं। यहां जवान लड़के लडकियां आते , मेलजोल बढ़ाते और बिना नशा -पानी के रंग जमाते। गर्मा -गर्म चाय की चुस्कियों और ताजा केक पेस्ट्री के साथ गप्पाष्ठी और कहकहे। चाय के गुणों का बखान होता ,किस्में तय की जातीं और तरह तरह की चाय का स्वाद चखा जाता। स्त्रियां नए नए नाश्ते ,बिस्कुट , मिठाईयां , चॉकलेट आदि बनाने में एक से एक प्रयोग कर रहीं थीं। इसी काल में फज्ज ( बर्फी ) ,कुल्फी (आइसक्रीम ),वनीला की खुशबु ,केसर का प्रयोग एवं मेवों का मिश्रण आदि कुकिंग में शामिल किये गए। अदरक, लौंग व दालचीनी केक में डाली जाने लगी।
अमीरों ने इसी काल में टी गार्डेन्स बनाये। रंगीन रोशनियाँ लगाकर ,संगीत की धुनपर खूब सज-धजकर गरम -गरम चाय ,सुन्दर नक्काशीदार प्यालों में ,गुलाब से ढकी वल्लरियों के वितानों के नीचे या भारतीय फूलवती झाड़ियों के बीच टहलते हुए पीना व पिलाना अत्यंत रूमानी समझा जाने लगा। अपने टी गार्डन को रंगों से सजाने के लिए भारत से बेल बूटे वहां ले जाए गए। हिमालय और कोरोमंडल के फूलों ने हंसकर ब्रिटेन की ठंडी जलवायु को अपना लिया। मगर सर्दी में यह निष्क्रिय हो जाते थे अतः उसका भी उपाय निकाला गया। कांच की छत वाले सायवान बनाये गए। इनके नीचे धूप का आनंद लेते हुए पार्टियां चलती थीं। भारत में शामियाना लगाकर जलसे किये जाते थे। यह कला भी अंग्रेजों ने अपना ली। शामियाने को मार्की कहा जाता है।
इन पार्टियों में विचार विमर्श भी चलते थे। स्त्रियों को अपने विचार व भावनाएं व्यक्त करने का सुअवसर मिला। पहले शादियां धन -सम्पत्ति देखकर कर दी जाती थीं। अब जवान शादी लायक पुरुष व स्त्रियां ,आपस में अपने सामने एक -दूसरे को समझ सकते थे। इंग्लैंड में विवाह की स्थिति सुधरने लगी। अमीर घरों की संस्कारी लडकियां अपने योग्य युवाओं से शादी करने लगीं। कालांतर में इनमे से कई भारत भी आईं और उन्होंने स्त्री शिक्षा की जागृति फैलाई। इसके साथ ही ब्रिटिश समाज में वैयक्तिक उत्थान की अभिलाषा ने जन्म लिया। लड़के और लडकिया अपने को उन्नत बनाने की प्रतिस्पर्धा में निखरते चले गए। व्यक्ति के गुणों व कार्य -कुशलता पर अधिक जोर दिया जाने लगा बजाय कि उसकी पारिवारिक समृद्धि के। सबसे अच्छी बात यह हुई कि नशे का प्रयोग कम हुआ। नशे के कुप्रभाव से कुंठित लोग जो व्यक्तित्व और पौरुष की पोच परिभाषा देते थे ,वह अब बौद्धिक विकास की ओर बढ़ने लगे। इन टी -पार्टियों में अपनी छवि का विकास करनेवाले नवयुवक तेजी से सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करने लगे। पत्नी व औलाद के प्रति निष्ठा बढ़ने लगी।
जिस देश की युवा पीढ़ी नशे व विलासिता एवं बनावटी सम्पन्नता को छोड़ दे वह क्यों न विश्व शक्ति बन जाता। इंग्लैंड तेजी से विकास के पथपर बढ़ने लगा। धन्य हो चाय ! धन कमाना कोई अंग्रेजों से सीखे। चाय की लोकप्रियता को व्यापार के धरातल पर उतार दिया गया।
सामंतों की सीमित मंडली से उतरकर चाय जनसाधारण में पहुंची। टी पार्टियां आम जनता को उपलब्ध कराने के लिए व्यापार क्षेत्र में पहुंचा दी गईं। सस्ते व उपयोगी साधन जनता को उपलब्ध कराये गए। चाय के विक्रेता अधिक से अधिक चाय की खपत बढ़ाना चाहते थे। एक अति ठन्डे देश के आम आदमी की मांग भी यही थी।
ठन्डे मौसम में ,बीच बाजार कोई उद्यमी ,बड़ी सी खौलती गंगाल ,ठेले पर रख लेता और आते जाते को पैसे -दो पैसे में चाय का कप पिलाता। आम जनता के मजदूर व कम आमदनी वाले लोगों ने इसमें खूब दिलचस्पी दिखलाई। शहर में कहीं चाय के चलते फिरते ठेले ,तो कहीं लम्बी चौड़ी मेजें और बेंचें। गरम चाय के प्याले के साथ ताजी डबलरोटी और शहर भर की गप शप। हर शहर का अलग रिवाज़ ! कहीं टीन के चौड़े कनस्तर ,तो कहीं एल्युमीनियम की गोल माँद जिसके नीचे आंच जलती रहती थी। बस चाय खौलती हुई होनी चाहिए और मीठी ! भारत से जानेवाली शक्कर से मीठी ! अंग्रेज एक एक कप में चार चार या इससे भी अधिक चीनी पी जाते थे।
ब्रिस्टल शहर में बड़े बड़े बैरलों में चाय भर दी जाती थी। शहर के चौंक में मेजें लगा दी जाती थीं। एक हट्टा – कट्टा पहलवान केतली में भर -भर कर चाय प्यालों में ढालता जाता ग्राहकों के वास्ते। लोग टिकट खरीदकर जम जाते। इसी तरह बर्मिंघम शहर में चौरस माँद का इस्तेमाल होता। पहले इसमे पाव भर चाय की पत्ती डाल दी जाती फिर पाइप से उबलता पानी भरा जाता। इस तरह की ‘ चाय – चौकड़ियाँ ‘ चलानेवाले खूब मुनाफा कमा गुजरे।
कम खर्च ! बालानशीं !!
भारत में जब रेलगाडियां चलने लगीं तब यही प्रथा अंग्रेजों ने स्टेशनों पर चलाई यात्रियों को चाय पिलाने के लिए। सड़कें बनी तो चाय के ढाबे उगे। बड़े बड़े पतीलों में उबलती चाय किसे नहीं पसंद आज तक ?
उन्नीसवीं शताब्दी तक इन टी स्टालों की प्रथा कायम रही पूरे इंग्लैंड में। परन्तु हर फैशन एक दिन पुराना पड़ जाता है।
हुआ यूँ कि चार्ल्स डिकेंस नामक प्रख्यात उपन्यासकार ने अपने उपन्यास ”पिकविक पेपर्स ” ( Pickwick Papers ) में दो पुरुष पात्रों — मि. स्तिगिंस और मि. वैलर का उपहास उड़ाते हुए लिखा कि वह इतनी चाय डकारते थे कि उन्हें आँखों के सामने ‘ फूलता हुआ ‘ देखा जा सकता था। डिकेंस का यह उपन्यास ,” पिकविक पेपर्स ” एक मशहूर पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपा। इसके कारण उस पत्रिका के स्थायी पाठक बन गए। हुआ भी यह अत्यंत लोकप्रिय जिससे पत्रिका की बिक्री अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी। डिकेंस की खासियत उसके शब्द चित्र थे। यह दृश्य पाठकों की स्मृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ गया। बस, तभी से कहते हैं कि चाय चौकड़ियों की साख कम हो गयी।
बात ऐसी नहीं थी कि लेखक डिकेंस को चाय से कोई परहेज़ था। दरअसल चाय और कॉफ़ी को वह गरीबों का ‘ आसव ‘ और घर का आराम मानते थे। ” A comfort in every home ” . वास्तव में शराब पीने की जरूरत को कम करनेवाली चाय ने गृहणियों और बच्चों की ज़िन्दगी को बहुत सुधार दिया। शराब पीने की आदत को छुड़ाने में चाय ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। और एक नई ” टी टोटलर ” जमात का आविर्भाव हुआ।
विलियम काऊपर नामक एक कवि ने लिखा ,” ये वह प्याले हैं जो खुश कर दें , पर बेसुध नहीं। ” ” The cups That cheer ,but do not inebriate . ”
पूरा छंद इस प्रकार है :—–
” Now stir the fire and close the shutters fast ,
Let fall the curtains , wheel the sofa round ,
And while the bubbling and long hissing urn
Throws up a steamy column , and the cups
That cheer but do not inebriate,wait on each
So let us welcome peaceful evening in .
( Ref. — ‘ The Task ‘ ,long poem ,’ The Winter Evening ‘ )
एक सर्दी की शाम का खूबसूरत वर्णन।
इस काल के लगभग सभी लेखकों ने चाय पर अपने विचार व्यक्त किये जो कहावतें बन गए। डॉ जॉनसन ने भी टी पर एक पूरा लेख लिखा। किसी ने लिखा कि एक सुन्दर स्त्री के रूप का निखार चाय बनाते समय अपने चरमोत्कर्ष पर होता है। तो किसी ने लिखा कि उसे ख़ुशी है कि वह उस काल में पैदा नहीं हुआ जब चाय नहीं थी।
अर्न , यानी नलके के टोंटीदार बैरल , कुछ नापसंद किये जाने लगे। इनमे पडी -पड़ी चाय बार -बार खौलती थी। अतः पड़े -पड़े उसका काढ़ा बन जाता था। कहते हैं एक पादरी ने तंग आकर एक दिन उसे अपनी मोटी तोंद से धक्का देकर गिरा दिया। उसने छोटी केतली के प्रयोग पर बल दिया। यह घर की कानस के नीचे एक तरफ कोयलों की आंच पर मंद- मंद सिमरती और पूरे घर में खुशबू फैलाती रहती थीं। चाय को पारिवारिक एकता का प्रतीक मान लिया गया। चाय की खुशबू से घर घर जैसा लगने लगा।
उन्नीसवीं शती के साथ ही औद्योगीकरण का युग आरम्भ हो गया। विद्युत के आविष्कार ने सम्पूर्ण विश्व की कायापलट कर दी। चारों ओर रौशनी ही रौशनी ! रात भी दिन की तरह जगर मगर !! धन उत्पादन का चक्का और भी गतिशील होता जा रहा था। हमने बताया कि कैसे चाय की लोकप्रियता को धन कमाने के लिए बाज़ार में उतारा गया था। अब यही खुले मैदान व सड़कों से उठकर महँगे आवासों में बेचीं जाने लगी। टी गार्डन अब रेस्टोरेंट में तब्दील होने लगे।
हुआ यूं कि लंदन ब्रिज के पास एक ऑफिस में एक लड़की सेक्रेटरी लगी हुई थी। । करीब ग्यारह बजे सुबह वह चुपके से ऑफिस के पिछवाड़े जाकर चाय बना कर पीती थी। जब पता चला तो उसका चहेता बॉस भी उसका साथ देने लगा। धीरे -धीरे उसने अपने चुने हुए सहकर्मियों को भी इस तफ़रीह में शामिल कर लिया। गप्पें, चाय की चुस्कियाँऔर सिगरेट के कश ! बेचारी सेक्रेटरी की जेब में छेंक होने लगा। अतः उसने इन सबसे पैसा लेना शुरू कर दिया। बस यहीं से शुरुआत हुई ‘ टी हाउस ‘ की और ऑफिसों के ‘ टी ब्रेक ‘ की। आज त क हर कार्यशील संस्था में सुबह १० और ११ बजे के बीच एक टी ब्रेक कानूनी तौर पर अवश्य होता है। इसी तरह दोपहर को भी आफ्टरनून टी ब्रेक होता है। आज पूरे यूरोप में ,हर गली कूंचे में टी स्टाल जरूर मिलेंगे और अब तो यह क़ानून बना दिया गया है कि दिन के किसी भी वक्त ,अगर ग्राहक चाय मांगे तो जरूर दीजिये। चाहे कितना भी व्यस्त समय क्यों न हो आप चाय बनाने से इंकार नहीं कर सकते।
लंदन में नामी गिरामी होटल जैसे रिट्ज या सेवॉय या हिलटन ,बड़े नाज़ नखरों से चाय पिलाते हैं। यहां चाय के साथ गरमा गरम ताज़े बने स्कोन व केक और मुलायम सैंडविच पेश किये जाते हैं। कई दिन पहले से बुकिंग करानी पड़ती है।
लंदन के केंद्र पिकाडिली सर्कस में एक अति प्राचीन पंसारी की दूकान है ” फोर्टनम एंड मेसन ” ( १७०७ ई. ) । यह पीढ़ियों से चाय के व्यापारी रहे हैं। इनके यहां चाय पीने का अलग स्वाद है। इन्होंने चाय का पूरा इतिहास संभालकर रखा हुआ है जिसकी वर्ष में एक बार यह प्रदर्शनी लगाते हैं। जब यह कलात्मक वस्तुएं दर्शनार्थ सजाई जाती हैं तब पैर रखने की जगह नहीं मिलती स्टोर में। अंग्रेजों ने इसी की नक़ल में कलकत्ते में फरपो रेस्तौरेंट खोला था जो आज भी है।
चाय की लोकप्रियता से विश्व के दैनिक जीवन में ,व्यापार में , समाज में क्या क्या बदलाव आये यह गिनना कठिन है। क्योंकि मित्रो, ”पिक्चर अभी बाकी है ” !
— कदम मेहरा
जानकारीपूर्ण लेख.