कविता

संस्कृति

बदल रही बोली भाषा, परवेश तुरंगी अलफ़ांसे

घटता स्तर गिरता चरित्र, विधना कैसा आगोश विचित्र

मातु-पिता को भूल रहे नित, बस एक पैमाना याद रहा

संस्कार सहज ही भूल रहे , खानदानी रिवाज हो रहे भंग

अविस्मरणीय पल की झलकें, अतीत गोद मे डूब रही

भारतीय संस्कृति के भाव छोड़ , पाश्चात्य भाव पर पहल करें

योग धरा को छोड़ रहे , क्रन्द्न करती नित भोग बला

कर्म वीर की गौरव गाथा , इतिहास बनी सी दिखती है

अवलंब भूल प्रतिसाद हुई, अवसाद हुआ तन मन उनका

जेहन पे बिच्छू रेंग रहे, झंझावत व्यूह तूफ़ानों के

किंचित संदेह नहीं इसमे , अवतीर्ण हुआ है नव युगांत

बदले मौसम  युग  बदल  रहा, निर्भय किश्ती अब रही कहाँ?

कुसमित तरुवर सब सूख रहे,वेदना लुप्त हो रही निरंतर

बाहुपाश मे मोह पड़ा है करता क्रन्दन ,

प्रीति रीति सब दूर खडें आपरचित बन

प्रेम स्वार्थ की टहनी बन छू रही,

अनन्त अविरल आकाश !

— राजकिशोर मिश्र ‘राज’

राज किशोर मिश्र 'राज'

संक्षिप्त परिचय मै राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी कवि , लेखक , साहित्यकार हूँ । लेखन मेरा शौक - शब्द -शब्द की मणिका पिरो का बनाता हूँ छंद, यति गति अलंकारित भावों से उदभित रसना का माधुर्य भाव ही मेरा परिचय है १९९६ में राजनीति शास्त्र से परास्नातक डा . राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय से राजनैतिक विचारको के विचारों गहन अध्ययन व्याकरण और छ्न्द विधाओं को समझने /जानने का दौर रहा । प्रतापगढ़ उत्तरप्रदेश मेरी शिक्षा स्थली रही ,अपने अंतर्मन भावों को सहज छ्न्द मणिका में पिरों कर साकार रूप प्रदान करते हुए कवि धर्म का निर्वहन करता हूँ । संदेशपद सामयिक परिदृश्य मेरी लेखनी के ओज एवम् प्रेरणा स्रोत हैं । वार्णिक , मात्रिक, छ्न्दमुक्त रचनाओं के साथ -साथ गद्य विधा में उपन्यास , एकांकी , कहानी सतत लिखता रहता हूँ । प्रकाशित साझा संकलन - युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच का उत्कर्ष संग्रह २०१५ , अब तो २०१६, रजनीगंधा , विहग प्रीति के , आदि यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं सम्मान --- युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच से साहित्य गौरव सम्मान , सशक्त लेखनी सम्मान , साहित्य सरोज सारस्वत सम्मान आदि

3 thoughts on “संस्कृति

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    बदले मौसम युग बदल रहा, निर्भय किश्ती अब रही कहाँ?

  • राज जी , सभ कुछ बदल गिया ,मैंने तो बहुत कुछ देखा है जो अब है ही नहीं . हम तो सकूल में पड़ते वक्त लड़किओं को बुला भी नहीं सकते थे ,आज तो कुछ कहने को रह ही नहीं गिया . अपनी जनम भूमि के दर्शन जब करते हैं तो लगता है हम परदेस में आ गए हों .

    • राज किशोर मिश्र 'राज'

      आदरणीय सादर नमस्ते , वक्त के साथ-साथ सब बदल रहा है , अब पहले जैसे संस्कार की कल्पना करना , अब दिवा स्वप्न के होता जा रहा है , आपके हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार

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