संस्कृति
बदल रही बोली भाषा, परवेश तुरंगी अलफ़ांसे
घटता स्तर गिरता चरित्र, विधना कैसा आगोश विचित्र
मातु-पिता को भूल रहे नित, बस एक पैमाना याद रहा
संस्कार सहज ही भूल रहे , खानदानी रिवाज हो रहे भंग
अविस्मरणीय पल की झलकें, अतीत गोद मे डूब रही
भारतीय संस्कृति के भाव छोड़ , पाश्चात्य भाव पर पहल करें
योग धरा को छोड़ रहे , क्रन्द्न करती नित भोग बला
कर्म वीर की गौरव गाथा , इतिहास बनी सी दिखती है
अवलंब भूल प्रतिसाद हुई, अवसाद हुआ तन मन उनका
जेहन पे बिच्छू रेंग रहे, झंझावत व्यूह तूफ़ानों के
किंचित संदेह नहीं इसमे , अवतीर्ण हुआ है नव युगांत
बदले मौसम युग बदल रहा, निर्भय किश्ती अब रही कहाँ?
कुसमित तरुवर सब सूख रहे,वेदना लुप्त हो रही निरंतर
बाहुपाश मे मोह पड़ा है करता क्रन्दन ,
प्रीति रीति सब दूर खडें आपरचित बन
प्रेम स्वार्थ की टहनी बन छू रही,
अनन्त अविरल आकाश !
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
बदले मौसम युग बदल रहा, निर्भय किश्ती अब रही कहाँ?
राज जी , सभ कुछ बदल गिया ,मैंने तो बहुत कुछ देखा है जो अब है ही नहीं . हम तो सकूल में पड़ते वक्त लड़किओं को बुला भी नहीं सकते थे ,आज तो कुछ कहने को रह ही नहीं गिया . अपनी जनम भूमि के दर्शन जब करते हैं तो लगता है हम परदेस में आ गए हों .
आदरणीय सादर नमस्ते , वक्त के साथ-साथ सब बदल रहा है , अब पहले जैसे संस्कार की कल्पना करना , अब दिवा स्वप्न के होता जा रहा है , आपके हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार