मेरी कहानी – 71
आज जब यह ऐपिसोड मैं लिखने बैठा तो कुछ देर पहले की एक बात याद आ गई। वोह यह कि एक ब्लॉग के जरिए मेरा संपर्क लीला तिवानी जी से हो गिया था ,जो नवभारत टाइम्स में ब्लॉगर हैं, उनके ब्लॉग में कॉमेंट लिखते लिखते यह रिश्ता एक बहन भाई में तब्दील हो गिया। उन्होंने ही मेरा संपर्क विजय सिंघल जी से करवा दिया। यूं तो कुछ साल पहले से ही मैं रेडिओ के लिए कहानीआं लिखता रहता था लेकिन युवा सुघोष (अब जय विजय) से मुझे और प्रेरणा मिली और मैं बाकायदा लिखने लगा। लीला बहन मुझे बहुत देर से कहती आ रही थी कि मैं अपनी आत्म कथा लिखूं लेकिन मुझे एक झिझक सी थी कि कैसे लिखूंगा क्योंकि आत्म कथा लिखने में कुछ मुश्किलें पेश आती हैं। आज ही लीला बहन का ईमेल आया और लिखा कि मेरी कहानी उन्हें बहुत अच्छी लगती है। जवाब में मैंने लिखा कि “लीला बहन, यह सब आप के कारण ही हुआ है”. लीला जी का ईमेल फिर आया, “गुरमेल भाई, आप हमें श्रेय भले ही दे दीजिए ,यह हमारा सौभाग्य है। हमें तो सिर्फ बाबा जी ने जरिया बना दिया। हम तो सब को लिखने के लिए प्रेरित करते हैं ,जो दिल की दस्तक सुन कर अवसर झटक लेता है, कामयाबी उस के चरण चूम लेती है। आप में पहले से ही यह प्रतिभा विद्यमान थी, जो जगाने से जग गई “. क्योंकि कहते हैं कि ज़िंदगी का किया भरोसा ,इस लिए मैं लीला तिवानी जी और विजय सिंघल जी का धन्यवाद करना चाहता हूँ। लो ! अब मैं इस काम से मुक्त हो गिया हूँ और अपनी कहानी को आगे ले जाता हूँ।
दिन बीतने लगे और मैं भी इस नए वातावरण में मसरूफ होने लगा। पिता जी के दोस्त एक एक करके हर रोज़ मुझे मिलने आते। कुछ तो हमारे गाँव के ही थे। डैडी जी उन को मेरे लिए काम के बारे में कहते रहते कि वोह मुझे अपने काम पर ले जाएँ और मैनेजर को पूछ कर काम दिलवा दें लेकिन उन दिनों काम मिलना बहुत मुश्किल था. अंग्रेज़ों को तो जल्दी काम मिल जाता था लेकिन हमारे लिए बहुत मुश्किल होता था। इस का कारण यह भी था कि उस समय इंडिया पाकिस्तान और जमेका से बहुत लोग आ रहे थे और इस के कारण गोरे लोग हम को और भी ज़िआदा नफरत करते थे किओंकि उन के मुताबक हम बिदेसी उन की नौकरीआं छीन रहे थे।
किओंकि १ जूलाई से नया इमिग्रेशन एक्ट लागू हो जाना था ,इस लिए धडाधड जहाज़ भर भर के इंडियन पाकिस्तानी और जमेकन लोग जिन को हम काले कहते थे ,आ रहे थे। हमारे कुछ लोगों ने अपने मकान ले कर किराए पर दिए हुए थे जिन में बहुत बहुत लोग रहते थे. दो या तीन बैड रूम के घर होते थे और एक होता था फ्रंट रूम। गोरे लोग तो इस को बैठने के लिए रखते थे लेकिन हमारे लोग इस में भी सोया करते थे। घर बहुत छोटे होते थे लेकिन मुहब्बत इतनी थी कि जब भी कोई नया आदमी आता उस को एडजस्ट कर लेते थे। आज घर के तीन चार लोग भी आपस में मिल जुल कर शान्ति से नहीं रह सकते लेकिन उस समय पन्दरा बीस आदमी भी इतफाक से रहते थे। हर एक आदमी अपनी शिफ्ट के हिसाब से काम पर जाता था ,इस लिए सुबह से ही अपनी अपनी दाल सब्जी रोटी बगैरा बनाना शुरू कर देते थे। घरों में सारा दिन कोई जाता कोई आता चलता ही रहता था।
किचन किओंकि छोटी होती थी और दाल सब्जी के सभी पतीले किचन में रखने मुश्किल थे ,इस लिए सभी अपने अपने पतीले बैड के नीचे रख लेते थे। कई कई दिनों के लिए दाल सब्जी बना कर रखना आम बात थी। हर कोई शनिवार को मीट बनाता था और यह मीट सोमवार और कभी कभी मंगलवार तक खाते रहते थे। आपस में झगडा बहुत कम होता था बल्कि जब भी कोई नया इंडिया से आता उस को पूछते कि वोह इंडिया से कोई क़र्ज़ तो नहीं ले कर आया !. ऐसी स्थिति में इकठे हो कर उस को सभी पैसे दे देते कि वोह पहले अपना इंडिया का क़र्ज़ उतार दे। इस के बाद वोह धीरे धीरे साथिओं को पैसे वापस करता रहता। और सब से बड़ी बात यह होती थी कि जब तक इंडिया से नया आया शख्स काम पर नहीं लगता था उस से रोटी के पैसे लेते नहीं थे। तब तक वोह शख्स फ्री खाना खाता रहता ,जब तक वोह काम पर नहीं लग जाता। दुकाने अँगरेज़ लोगों की ही होती थी ,वोह भी बहुत छोटी छोटी ,इंडियन दुकाने बहुत कम होती थीं और मिर्च मसाले लेने के लिए दूर जाना पड़ता था। ३२ पाऊंड आटे का बैग होता था और उस के लिए भी दो मील दूर टाऊन जाना पड़ता था। वहां एक आटे की बहुत बड़ी मिल हुआ करती थी ,वहां जा कर आर्डर देना पड़ता था. इस आटे की मिल का नाम होता था JN.MILLAR . मिल वाले आटे का बैग घर छोड़ जाते थे।
आटे के बैग के पैसे सभी अपने अपने हिस्से के देते थे। किसी का कोई गैस्ट आ जाए ,सभी उस का सन्मान करते थे। एक और बात होती थी ,जब भी कोई इंडिया से नया आता उस को बीअर भी अपनी जेब से पिलाते थे। सर्दिओं में किओंकि ठण्ड बहुत ज़िआदा होती थी ,इस लिए कोएले खरीदने पड़ते थे। हर घर के साथ एक कोल रूम होता था। टाऊन में कोएले की एक दूकान होती थी जिस पर लिखा होता था,national coal board ,यह नाम इस लिए होता था कि उस वक्त इंग्लैण्ड की कोल इंडस्ट्री नैश्न्लाइज़्द होती थी और गवर्नमेंट की ही होती थी । इस शौप में जा कर कोय्लों का आर्डर दे देते थे ,कई दफा दस बैग ,कई दफा पंदरां बैग। उन के लौरी ड्राइवर डिलिवरी कर जाते थे और कोल रूम कोयेलों से भर जाता था। कोले का काम सिर्फ गोरे ही करते थे और उन के मुंह कोले से काले होते थे। यह कोयले के पैसे भी सभी आदमी शेयर कर लेते थे।
घरों को गर्म करने के लीये हर कमरे में एक अंगीठी हुआ करती थी ,जिस में कोयले डाल कर आग जलाते थे ,जिस से कमरा गर्म हो जाता था। क्योंकि हर एक आदमी के पास इतना वक्त नहीं होता था ,इस लिए आम तौर पर सिटिंग रूम की अंगीठी में ही आग जलाते थे। सभी कमरे में बैठ कर बातें करते रहते और अपने आप को तापते रहते थे। अंगीठी के पास एक बाल्टी कोयले से भरी रखी होती थी ,और जब आग जरा धीमी होती तो अंगीठी में और कोयले डाल देते। ख़ास कर शनि और रविवार को यह कमरा भरा होता था। बातें करते रहते और अपने अपने घरों की समसयाओं के बारे में भी बातें होती रहती। हमारे घर में शनि और रविवार को बहुत से लोग गियानी जी से अपने फ़ार्म भरवाते या अपने घरों को चिठीआं लिखवाते रहते। एक किसम का मेला सा लगा रहता।
सभी लोग फैक्ट्रियों में ही काम करते थे। कई तो सोला सोला घंटे काम करते थे और घर आते ही खा पी कर सो जाते थे। कई लोग फाऊन्ड्रीओं में काम करते थे और उन के काम बहुत भारी और गर्म होते थे क्योंकि उन को ढलाई का काम करना पड़ता था। उबलते हुए स्टील या किसी और मैटल की बोगिओं के साथ सारा सारा दिन काम करना पड़ता था। इन लोगों के हाथ भी बड़े और स्टील जैसे सख्त हो जाते थे। कभी कभी उबलती हुई मैटल के छींटे भी इन लोगों के ऊपर पड़ जाते थे ,जिस के कारण उन को कई कई महीने हस्पताल में रहना पड़ता था ,चमड़ी बर्बाद हो जाती थी।
सब से सख्त काम होता था मोल्डर का। जिस किसी मशीन का पुर्ज़ा बनाना हो ,उसी हिसाब से एक ख़ास किसम की मट्टी से बॉक्स बनाये जाते थे। कई पुर्ज़े छोटे कई बहुत बड़े होते थे जिन को करेंन से ही उठाया जा सकता था। दो आदमी सारा दिन यह बक्से बनाते रहते थे ,इस काम के लिए तगड़े आदमी की जरुरत होती थी। जब बहुत से बॉक्स तयार हो जाते तो करेंन से उबलते हुए मैटल की बोगी एक एक बॉक्स के ऊपर जाती और एक ख़ास टूटी से वोह पानी जैसी मैटल बॉक्स की एक गली में डाली जाती। जब वोह बॉक्स भर जाता तो बोगी दूसरे बॉक्स की और चली जाती। जब सभी बॉक्स मैटल से भर जाते तो आगे जा कर इन बॉक्सों को तोडा जाता जिस से मैटल का पुर्ज़ा मट्टी से इलग्ग हो जाता। यह काम बहुत तगड़ा आदमी ही कर सकता था क्योंकि इन बॉक्सों को बड़े बड़े हथौड़ों से भी तोडा जाता जो मशीन से टूटते नहीं थे और इस काम के पैसे भी बहुत होते थे। गोरे इंडियन सभी यह काम करते थे।
इन फाऊन्ड्रीओं के साथ ही पब्ब होते थे। जब डिनर टाइम यानी आधी छुटी होतो तो पहले भाग कर पब्ब में चले जाते और कई कई मघ बियर के पी जाते। क्योंकि डिनर टाइम में रश होता था ,इस लिए पब्ब वालों ने भी बियर के ग्लास भर भर कर काउंटर पहले ही भरा होता था और लोग आते ही बियर उठा लेते थे। बियर पी कर हमारे इंडियन भाई अपनी अपनी रोटीआं और सब्ज़ी मैटल की बोगिओं के ऊपर ही गर्म कर लेते और वहां ही बैठ कर खाते। गोरे लोग भी अपने अपने सैंडविच वहां ही गर्म कर लेते और खाने लगते। इतने भारी काम सारा दिन करके शरीर थक कर चकनाचूर हो जाता था। सभी के मन में एक ही बात होती थी कि कुछ साल काम करके इंडिया वापस जायेंगे और घर बार बनायेंगे। उधर विचारी उन की पत्नीआं इंडिया में इंतज़ार करती रहतीं। कई तो संतों के ढेरों के चक्क्र लगाती रैहती इस फ़िक्र में कि कहीं उन के मर्द ने कोई गोरी से शादी न करा ली हो क्योंकि ऐसा बहुत लोगों ने किया भी था। इस के बारे में मैं तल्हन के एक डेरे के बारे में लिख भी चुक्का हूँ। इन औरतों की कुर्बानी का कोई मोल नहीं लगा सकता जो उन्होंने दी है।
आज तो बहुत कुछ बदल गिया है और अब पब्ब भी उतने नहीं रहे क्योंकि वोह फैक्ट्रियां ही नहीं रहीं और ज़्यादा तर पब्ब बंद हो गए हैं । उस वक्त तो हर स्ट्रीट में एक पब्ब होता था, कई स्ट्रीटों में तो दो दो पब्ब होते थे। गोरे तो तकरीबन रोज़ बीवी बच्चों को ले कर पब्ब में जाते थे लेकिन अपने लोग अक्सर शनिवार और रविवार को ही जाते थे। हर पब्ब में एक बार रूम होता था और एक स्मोक रूम होता था और साथ ही एक होता था चिल्ड्रन रूम जिस में अंग्रेज़ों के बच्चे खेलते रहते थे और कुछ खाते पीते रहते थे। एक रात को मुझे भी डैडी जी पब्ब में ले गए। अभी गए ही थे कि डैडी के कई दोस्त आ गए और पूछने लगे कि हम ने किया पीना था। डैडी ने उन को माइल्ड बियर लाने को कहा। जल्दी ही एक शख्स हमारे आगे दो बड़े बड़े ग्लास बीयर के हमारे रख गिया।
डैडी ने मुझे बियर पीने को कहा। मैं भी पीने लगा लेकिन मुझे स्वाद कुछ अजीब सा लगा। डैडी जी ने दो पैक्ट नमक वाली मूंगफली के जिन को यहां पी नट कहते हैं ला दिए। हम पी नट खाने लगे और साथ ही बियर पीते गए। अभी ग्लास खत्म नहीं हुए थे कि कोई दो ग्लास और हमारे आगे रख गिया। यह भी इंडिया से आये नए शख्स का एक किसम का सत्कार होता था। इंडिया से नया आया शख्स सब का साँझा होता था। फिर डैडी जी ने भी उन के आगे बियर के ग्लास रख दिए। जैसे जैसे मैं बियर पीता गिया ,मुझे मज़ा आने लगा और बियर स्वादिष्ट लगने लगी। एक आदमी हंस पड़ा और कहने लगा ,” ओए बोई को पिछाब तो करा लाओ !”.
बात उन की सच्ची थी क्योंकि बियर पी कर टॉयलेट भी बार बार जाना पड़ता है। डैडी जी मुझे टॉयलेट की ओर ले गए और बताया कि एक gents है और दूसरा ladies . सिर्फ gents में ही जाना है ,ladies में नहीं ,नहीं तो फाइन हो सकता है। टॉयलेट बहुत ही साफ़ थीं। आज पहली दफा ऐसी टॉयलेट में गिया था। मुझे याद नहीं कितने ग्लास बियर के मैंने पिए लेकिन जब हम बाहर आये तो मुझे मज़ा आ रहा था और मैं बातें भी करने लगा था। एक आदमी डैडी जी के पास आया और कहने लगा ,” कल को मैं तुम्हारे घर आऊंगा और आ के गुरमेल को काम की ट्राई के लिए ले जाऊँगा ,हो सकता है कोई काम मिल जाए “. हम घर आ गए ,खाना खाया और डैडी जी ने मुझे सब समझा दिया कि फैक्ट्री में जा कर काम के लिए किया किया बोलना था।
दूसरे दिन वोह शख्स आया ,जिस का नाम पियारा था और मुझे अपने साथ ले गिया। हम ने एक बस पकड़ी और कुछ दूर जा कर उत्तर गए और फिर एक फैक्ट्री की और जाने लगे। इस फैक्ट्री का नाम था BRITOOL LIMITED . यह मेरी पहली ट्राई थी। पियारे ने मुझे आगे जा कर मैनेजर से बात करने को कहा। मैं गिया और गुड मॉर्निंग बोला। गोरे ने भी मुस्करा कर गुड मॉर्निंग बोला। मैंने पहली दफा अच्छी अंग्रेज़ी बोली और कहा कि मैं इंडिया से नया नया आया हूँ और काम की तलाश में हूँ ,अगर कोई काम हो तो मैं अभी से करने को तैयार हूँ। वोह अंदर गिया ,कुछ देर बाद वापस आया और बोला ,सॉरी , अभी तो कोई वेकेंसी नहीं है लेकिन नैक्स्ट वीक कोशिश करना ,शायद कोई जॉब खाली हो जाए। हम दोनों वापस आ गए और पियारा मुझे कहने लगा कि एक हफ्ते तक फिर ट्राई करेंगे। हम वापस आ गए।
जॉब तो मुझे मिली नहीं लेकिन एक नया तज़ुर्बा हो गिया था । पियारा मुझे मेरे घर तक छोड़ कर चले गिया। एक हफ्ता यूं ही गुज़र गिया और मैं कुछ कुछ बाहर जाने लगा। दूर दूर तक चले जाता और कभी कोई अपना इंडियन मिल जाता और मुझे मेरे गाँव का नाम पूछता। मेरे जैसे स्कूल लीवर मुझे मिलने लगे और दोस्त भी बनने लगे। एक दिन डैडी जी काम से आते ही बोले ,” लो तुम्हारा दोस्त बहादर भी आ गिया है ,मुझे एक हमारे गाँव वाले ने बताया है जो उस के चाचे केसर सिंह को मिलने बर्मिंघम गिया हुआ था”. फिर बोले ,” रविवार को हम उन से मिलने चलेंगे “.
यह खबर सुन कर मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि बता नहीं सकता। यह तो ऐसा था जैसे किसी लड़ाई के वक्त अपनी अपनी जान बचाने के लिए हम एक दूसरे से विछुड़ गए थे और अब शान्ति के वक्त हमें एक दूसरे के ठिकाने का पता चल गिया हो और जल्दी जल्दी मिलने के लिए तड़प रहे हों। उस वक्त टेलीफून तो घरों में होते नहीं थे ताकि बात चीत हो सके। बस वैसे ही बस पकड़ कर किसी के घर चले जाते थे और आज मैं भी बहादर को मिलने के लिए ही बेताब हो रहा था। यह तो ऐसा लग रहा था जैसे फिल्मों में बचपन के विछुड़े हुए दोस्त अचानक मिल जाते हैं। इस इंतज़ार में भी कितना आनंद था।
चलता। …. …
लन्दन में भारतियों की जिंदगी, खानपान, रहन सहन, विचारों, मेल जोल और काम करने के बारे में जान कर अच्छा लगा। बहादर भी इंग्लॅण्ड पहुँच गया इससे आपको जो ख़ुशी मिली, वह स्वाभिक ही थी. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।
मनमोहन भाई ,धन्यवाद .कोई भी बात मैं छुपाऊंगा नहीं किओंकि अगर मैं छुपाऊंगा तो वोह सत्य इतहास नहीं होगा . अब तो भारत में भी बियर शराब का बहुत चलन है लेकिन इंग्लैण्ड का और भारत में पिने का एक फरक है कि यहाँ लोग इसे प्ब्ब में जाना सोशलाइज़ करना कहते हैं यानी लोग बातें करते हैं खेलते हैं गाने सुनते हैं और रिलैक्स होने के लिए जाते हैं . भारत में पीना और यहाँ पीना बहुत इलग्ग है . यहाँ तो बियर पीना ऐसा है जैसे भारत में लोग किसी हलवाई की दूकान पर लस्सी पीने जाते हैं . कोई दोस्त आया तो पहली बात होती है ,”चलो प्ब्ब में चलते हैं “
हार्दिक धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए। आप जो लिखते हैं वह सत्य व प्रामाणिक है, इसका हमें पूरा विश्वास है। संस्कृत में चार शब्द हैं – “सत्यम वद धर्म चर” अर्थात सत्य बोलो और धर्म का पालन करों। इसका यह अर्थ भी है कि सत्य बोलना ही धर्म है। लेखक का धर्म भी है कि वह सत्य ही लिखे। आप लेखक धर्म का पूरा पूरा पालन कर रहे हैं, यही आपके लेखन में आत्मा व प्राण का कार्य करता है और पाठक के मन को छूता है। धन्यवाद।
धन्यवाद मनमोहन भाई .