ग़ज़ल
आग है ख़ूब थोड़ा पानी है
ये यहाँ रोज़ की कहानी है
ये ही कहने में कट गए दो दिन
चार ही दिन की ज़िंदगानी है
ख़ुद से करना है क़त्ल ख़ुद को ही
और ख़ुद लाश भी उठानी है
पी गए रेत तिश्नगी में लोग
शोर उट्ठा था यां पे पानी है
मेरे ख़ाबों में यूँ तिरा आना
मेरी नींदों से छेड़खानी है
सारे किरदार मर गए लेकिन
रौ में अब भी मिरी कहानी है
— प्रखर मालवीय “कान्हा”