ग़ज़ल
बचे न मुल्क वह चिराग जलाए रखिये ।
उन लुटेरों की सियासत को चलाए रखिये ।।
खा गए शौक से चारा जो मवेशी का यहां।
उनकी खिदमत में इलेक्शन को सजाये रखिये।।
फिर से मण्डल की दगी तोप ले के निकले है।
बुझी बारूद पर यकीन बनाये रखिये ।।
जात के नाम पर तक़रीर है खुल्लम खुल्ला।
कुछ अदालत पे नजर अपनी जमाये रखिये।।
सिर्फ घोटाला ही मकसद हो जिनकी कुर्सी का।
वोट का भाव तो अपना भी बढ़ाये रखिये।।
कुर्सियां नोचते गिद्धों की तरह ये आलिम।
इनकी तारीफ चैनलो से सुनाये रखिये ।।
वो तरक्की की बात भूल से नहीं करते ।
राज जंगल की बात मन में बिठाये रखिये।।
कुतर कुतर के खा गए जो मुल्क की इज्जत।
उनकी इज्जत के लिए खुद को मिटाये रखिये ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
त्रिपाठी जी , ग़ज़ल में मौजूदा भारत का चित्र लिख दिया जो बिलकुल एक दम सही है और हम बाहर बैठे देख कर दुखी हो रहे हैं .यह कैसा विकास है जो दाल मीट के भाओ विक रही है और पिआज तो अब घर में सोने की तरह छुपा कर रखने जैसे हो गई है . सिआसतदान सत्ता के बारे में ही सोचते रहते हैं . क्या होगा ,भगवान् ही जाने .
त्रिपाठी जी , ग़ज़ल में मौजूदा भारत का चित्र लिख दिया जो बिलकुल एक दम सही है और हम बाहर बैठे देख कर दुखी हो रहे हैं .यह कैसा विकास है जो दाल मीट के भाओ विक रही है और पिआज तो अब घर में सोने की तरह छुपा कर रखने जैसे हो गई है . सिआसतदान सत्ता के बारे में ही सोचते रहते हैं . क्या होगा ,भगवान् ही जाने .