लघुकथा – अपनी कमाई
परेश बाबू ने बड़ी मुश्किल से चार पैसे जुटाए थे। पाई–पाई बहुत सोच समझकर खर्च करते । घर का खास-खास खर्चा भी अपने हाथ में ले रखा था। खर्चे के मामले में वे अपनी पत्नी से कुछ घबराते ही थे। एक तो वह बड़े घर की बेटी दूसरे उसका खुला हाथ । पति की यह मितव्ययिता पत्नी को फूटी आँख न सुहाती। उसने उसे कंजूस की उपाधि से विभूषित कर दिया था । घर का फर्नीचर उसे बाबा आदम के म्यूजियम का नजर आता । पति का प्रिय पहनावा खादी का कुर्ता-पाजामा गांधी युग की याद दिलाता ।
जैसे–जैसे बेटा बड़ा होने लगा उसे चिंता खाने लगी कि बेटा भी अपने पापा के नकशेकदम पर न चलने लगे। गर्मियों की छुट्टियों में अपने भाई के पास उसे भेज दिया ताकि भतीजों के साथ रहकर आधुनिकीकरण हो सके । एक माह के बाद बेटा मामा की दी सौगातों से लदाफदा लौटकर आया। हाथ में मोबाइल फोन, पैरों में चमकते जूते और पैंट में लगी थी चमड़े की कीमती बैलट। बेटे को देख माँ निहाल हो गई और उसे गले लगा लिया ।
शाम को परेश बाबू ऑफिस से आए । दरवाजा हमेशा बेटा खोलता था आज पत्नी को खड़ा देख परेशान हो उठे –बेटा आ गया –ठीक तो है।
-सब ठीक है । अपने स्कूल के किसी दोस्त से बातें कर रहा है। बातें थीं कि खतम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं । आधे घंटे बाद बेटा फुदकता आया –पापा –पापा देखो मामा ने यह मोबाइल दिया है ।
एक मिनट बेटे की बदलती रूपरेखा पर नजर डाली और अपने को भरसक नियंत्रित करते हुए बोले – ‘बेटा यह है तो अच्छा पर एक बात बताओ । तुम काफी देर तक इसपर बातें करते रहे ,क्या इसका पैसा नहीं लगता?’
‘पापा बातें करने के पैसे लगते हैं । जितनी बातें उतना पैसा ।’
‘फिर तो तुम दोस्त से स्कूल में भी बातें कर सकते थे। देखो बेटा, तुम जितना चाहोगे उतना पढ़ाऊंगा, अच्छे से अच्छा खिलाऊंगा पर तुम्हारे शौक पूरा करने के लिए या बढ़िया बढ़िया कपड़े सिलवाने के लिए मेरे पास पैसा नहीं हैं ।’
पत्नी बोल पड़ी- ‘क्या बात करते हैं जी,हमारे एक ही तो बेटा है । क्या हम उसके शौक पूरे नहीं कर सकते?’
‘शौक उसके अवश्य पूरे होंगे पर मेरी कमाई से नहीं, उसकी खुद की कमाई से ।’
— सुधा भार्गव
बहुत अच्छी लघु कथा ,एक बाप अपने बेटे को अछे संस्कार देने की कोशिश में है और माँ उसे बर्बादी की ओर धकेल रही थी .