कविता : सूखा पत्ता
सूखा पत्ता हूँ मैं डाल का
कभी बेदर्दी से रौंदा जाता पैरों तले
कभी धूल में मिलाती आती- जाती गाड़ियाँ
कभी कोई ठोकर मारता खेल- खेल में
हुआ क्या डाल से जुदा होकर
खो गया मेरा वजूद ही मेरा
था कभी हरा भरा मुस्कुराता पत्तों के झुरमुट में
कभी हवा दुलारती
कभी सूरज की किरणें सहलाती
कभी पंछियों का कलरव गुदगुदाता
कितनी शान से मैं ऊपर से
देखता था में धरती की ओर
और आज पड़ा निढ़ाल धरा पर
देखता हूँ बेबस आसमां की ओर
और सोचता ……
क्यों हो गयी जुदा मुझ से खुशियाँ मेरी
और मिला मेरा वजूद धूल में
शायद जीवन का यही नियम है
मुस्कुराने की कीमत
उसके खोने के बाद ही पता चलती है
और जीवन का सबक भी वक्त ही सिखाता है ||
— मीनाक्षी सुकुमारन
bahut sundar kavita,,, ek seekh ke saath 🙂