संस्मरण

मेरी कहानी 91

हमारा जहाज़ अमृतसर छोड़ चुक्का था और हम बादलों के ऊपर उड़ रहे थे. कुलवंत मुरझाई सी लग रही थी और मेरे कंधे पर सर रख कर आँखें बंद किये हुए सो रही थी. मुझे नहीं पता कि वोह सो रही थी या सोने का नाटक कर रही थी. मुझे पता है कि वोह ऐसे ही महसूस कर रही होगी जैसे जब मैं भी पहली दफा अकेला जहाज़ में बैठा था. लेकिन एक फरक था कि इस जहाज़ में दो गोरों को छोड़ कर सभी पंजाबी थे और वोह भी गाँवों के रहने वाले ही थे. कुछ मिनटों में ही हम काबुल एअरपोर्ट पर जा पहुंचे और दुसरे जहाज़ की इंतज़ार करने लगे. ज़िआदा वक्त नहीं लगा जब दूसरा जहाज़ भी आ गिया और हम उस में सवार हो गए और हम फिर आसमान में उड़ने लगे. अब डैस्टिनेशन, लंदन गैटविक एअरपोर्ट ही था. रात होने लगी थी और नीचे कुछ दिखाई नहीं देता था. सारी रात सात आठ घंटे हम उड़ते रहे और अब लौ होने लगी थी. सभी टूथ पेस्ट और ब्रश हाथों में लिए टोएलेट की और जा रहे थे. हम भी इस काम से जल्दी फ़ार्ग हो गए और ब्रेकफास्ट की इंतज़ार करने लगे.

जल्दी ही ब्रेकफास्ट से भरी प्लास्टिक की ट्रे आने लगी. ब्रेकफास्ट ख़तम हुआ ही था कि माइक में कोई लड़की बोली कि हम गैटविक एअरपोर्ट पर पहुँचने वाले हैं और कृपा अपनी अपनी सीट की पेटीआं बाँध लें। अब सारे जहाज़ में हिलजुल होने लगी थी और कुछ लोग अपनी सीट बैल्ट की परवाह किये बगैर ऊपर के कम्पार्टमैंटों से अपने बैग उतारने लग गए थे। लड़किआं बोल रही थीं, “कृपा अपनी अपनी सीटों पर बैठे रहे ” लेकिन हम पंजाबी कियों मानने लगे थे, हम तो अब भी ग्रामीण ही थे। नीचे लन्दन की इमारतें दिखाई दे रही थीं और धुप छाई हुई थी जिससे ख़ुशी महसूस हो रही थी क्योंकि इस समय इंगलैंड का मौसम बुरा ही होता है। कुछ ही मिनटों में जहाज़ रनवे पर लैंड हो गिया। जहाज़ से उतरते ही हम सीधे एअरपोर्ट की बिल्डिंग के अंदर ही आ गए और कस्टम में आ पहुंचे। किसी ने पासपोर्ट की वजाए कुछ नहीं देखा और हम आगे जा कर लगेज बैल्ट पर अपने अपने सूट केसों का इंतज़ार करने लगे जो रेलिंग पर घूम रहे थे ।

जब हमारे अटैचीकेस आये तो हम ने उठा लिए और ट्रॉली पर रख लिए और एअरपोर्ट के मेन हाल में आ गए। एक बैंच पर हम बैठ गए। कुछ मिनट बाद मैंने कुलवंत को कहा कि वोह मेरी इंतज़ार करे, जब तक मैं एक टैक्सी ले आऊं। टैक्सी के लिए मुझे कोई दस मिनट लग गए और जब मैं टैक्सी ले कर आया तो कुलवंत बहुत घबराई हुई इर्द गिर्द देख रही थी। अब तो कभी कभी मुझे अपने मन में हंसी आ जाती है लेकिन उस का उस वक्त का वोह चेहरा अभी तक मैं भूला नहीं। टैक्सी वाला एक गोरा था, उस ने हमारी टरौली पकड़ी और टैक्सी की ओर ले जाने लगा। टैक्सी का किराया उस नें साढ़े चार पाउंड कहा था। उस ने हमारा सामान टैक्सी में रखा और लन्दन का मैप देखने लगा। हम ने बहन के घर वूलिच सैंडी लेन पर जाना था.

एक घंटे में हम वूलिच बहन के घर आ पहुंचे। बहन बहुत खुश हुई थी। हमारी शादी से कुछ साल पहले बहन धैनोवाली जा कर कुलवंत को मिल भी आई थी, इस लिए वोह कुलवंत को पहले से ही जानती थी। इस लिए दोनों जल्दी ही घुल मिल गईं। शाम को हमारे बहनोई सरदार सेवा सिंह भी आ गए। इकठे ही हम ने खाना खाया। सेवा सिंह बहुत हंसी मज़ाक किया करते थे, इस लिए अब वातावरण बहुत ही मनोरंजक था। मैंने भी अपनी दोनों की सारी कहानी सुनाई जिस से देर रात तक हम हँसते रहे। सुबह को सेवा सिंह तो काम पर चले गिया और हम ने टैक्सी ली और पैडिंगटन रेलवे स्टेशन पर आ गए। इंडिया में तो कुली मिल जाते हैं लेकिन इंगलैंड में कोई कुली नहीं होता, सो खुद ही अपना सामान ट्रेन में रखा और घर की ओर चल पड़े। तीन घंटे में हम अपने शहर आ गए। रेलवे स्टेशन से टैक्सी ली और घर आ गए।

मैंने दरवाज़े के हैंडल को खटखटाया लेकिन किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला। मैंने बैग में से घर की चाबी निकाली और सामान अंदर ले आये। कुलवंत को मुस्करा कर मैंने कहा, “लो यह हमारा घर है “. हमारा बैड रूम ऊपर था, इसलिए हम ने अपना सामान बैड रूम में रख दिया। छोटा सा हमारा घर, मैंने कुलवंत को दिखाया और बाहर गार्डन में चले गए। कोई कोई गोरी अपने गार्डन में रस्सी पर सूखने के लिए कपडे डाल रही थी किओंकि उस दिन मौसम अच्छा था, जो साल के इस महीने अक्सर ठंड वाला ही होता है। गोरिआं देख कर कुलवंत हैरान हो गई कि इनका रंग इतना चिट्टा था। हम घर के भीतर आ गए और किचन के बारे में कुलवंत को सारा कुछ समझाया किओंकि गैस कुकर उस के लिए एक नई चीज़ थी। मैंने चाय का पैन निकाला, उसमें टूटी से पानी डाला और गैस कुकर के एक बर्नर पर रख दिया, कुलवंत ने खंड और चाय पत्ती डाल दी, गियानी जी की एक दूध की बोतल से कुछ दूध डाला और कुछ देर बाद चाय तैयार हो गई। टेबल पर बैठ कर हम चाय पी रहे थे कि तभी अचानक दरवाज़ा खोल कर गियानी जी आ गए। कुलवंत को गियानी जी के बारे में मैंने पहले ही बताया हुआ था। उस ने उठ कर गियानी जी के चरण सपर्श किये और मैंने भी सत सिरी अकाल बोला। चाय के लिए गियानी जी को पुछा तो वोह कहने लगे कि उन्होंने अभी थोह्ड़ी देर पहले ही पी थी। इंडिया की बातें होने लगी और मैंने बताया कि इंडिया में रहते हुए मैं जसवंत को मिल नहीं सका था। गियानी जी सब के साथ घुल मिल जाते थे और जल्दी ही कुलवंत को भी लगा जैसे वोह घर के सदस्य ही हों।

कुछ देर बातें करने के बाद हम ऊपर बैड रूम में चले गए और सूट केस खोल कर सामान को वार्ड रोब में रखने लगे। जल्दी ही सारा सामान ठीक ठीक जगह पर टिका दिया और कमरा सज गिया। गियानी जी ने रात को काम पर जाना था और वोह अपना खाना बनाने लगे। कुलवंत ने रोटी के बारे में पुछा तो मैंने ही कुलवंत को बता दिया कि गियानी जी रोटी नहीं खाते थे, उन का खाना सब से इलग्ग होता था लेकिन बहुत हैल्थी होता था। यही वजह थी कि ९० वर्ष की उम्र हो जाने पर भी उन का ब्लड्ड प्रेशर एक जवान जैसा था। उन का खाना कोई ज़्यादा कुक नहीं करना पड़ता था। जल्दी ही वोह खाना ले कर टेबल पर आ बैठे। खाते खाते हमारे साथ बातें भी करते चले जा रहे थे। उंन्होंने बताया कि कुछ दिनों में जसवंत की शादी भी होने वाली थी और जसवंत के ससुर जत्थेदार प्रीतम सिंह सरींह शंकर वाले को वोह जानते थे।

प्रीतम सिंह अकाली दल पार्टी के सरगर्म मैम्बर थे और एक दफा जब फ़तेह सिंह ने पंजाबी सूबे के लिए मोर्चा लगाया हुआ था और मरण वर्त रखा हुआ था तो मरण वर्त तोड़ने पर जत्थेदार प्रीतम सिंह ने उस समय उन को जूस का ग्लास पिलाया था, यह बात प्रीतम सिंह ने मुझे खुद 1974 में बताई थी और उस वक्त के फोटो भी दिखाए थे। जत्थेदार प्रीतम सिंह हर वक्त अपनी कार में एक बन्दूक धारी रक्षक रखते थे। जसवंत की चाची प्रीतम सिंह की दूर की बहन थी और उस ने ही यह रिश्ता करवाया था। काफी बातें करने के बाद गियानी जी काम पर चले गए और हम ने टीवी ऑन कर दिया।

उस वक्त इंडिया में टीवी नहीं होते थे, सिर्फ दिली में ही अभी शुरू हुआ था। इंगलैंड में भी जो टीवी होते थे, उन का फ्रेम लकड़ी का होता था और स्क्रीन बहुत छोटी होती थी। चैनल भी सिर्फ दो ही होते थे BBC और ITV. बेछक यह चैनल इंग्लिश में ही थे, फिर भी कुलवंत बहुत मज़े से देख रही थी। वैसे भी वक्त पास करने के लिए टीवी बहुत सहाई था, रेडिओ लेने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि इंडिया का कोई स्टेशन आता ही नहीं था। कुछ महीने बाद मैंने एक काफी पावरफुल इलैक्ट्रिक रेडिओ लिया था जिस पर अच्छा मौसम हो तो external services of all india radio कभी कभी सुन लेते थे लेकिन इतना क्लीअर सुनाई नहीं देता था, फिर भी इंडिया रेडिओ को सुनने के लिए कितने इछक होते थे। देर रात को एक अंग्रेजी फिल्म आती थी बेछक इतनी समझ तो नहीं आती थी फिर भी मज़े से देखते थे। यह फ़िल्में अक्सर ड्रैकुला की होती थीं जिस में ऐक्टर क्रिस्टोफर ली होता था और कुछ और हौरर मूवीज़ होती थीं जिस में विंस्टन प्राइस की ऐक्टिंग बहुत अच्छी होती थी. कुलवंत ने भी पहली दफा इंग्लिश फिल्म देखि थी। फिर हम ऊपर सोने के लिए चले गए।

सुबह उठ कर चाय बना कर पी और बाहर को शॉपिंग करने चल पड़े। हमारे एरिए में उस वक्त दो इंडियन दुकाने होती थीं और वहां से ही घर का राशन लाते थे। दालें सब्जीआं मिर्च मसाले बगैरा लिए, दो दो बैग भर कर घर ले आये। खाना बना कर खाया और मैं अपने काम के डैपो की तरफ चल पड़ा, ताकि पता चले कि मुझे काम पर रखेंगे या नहीं क्योंकि काम के बगैर तो कुछ भी नहीं था। जब मैं क्लीवलैंड रोड डैपो पहुंचा तो सीनियर इंस्पैक्टर के दफ्तर में पहुंचा। उससे मिल कर काम के बारे में पुछा। सीनियर इंस्पैक्टर मिस्टर लाली ही था। उसने रैजिस्टर में मेरा पुराना रिकार्ड देखा और उसी वक्त मुझे कहा कि मैं आज से ही शुरू करना चाहता हूँ या कल से। मैंने कहा कि कल से। तो लाली ने मुझे कहा कि मैं क्लोदिंग डिपार्टमेंट से अपनी यूनिफार्म ले लूँ और सुबह को काम पर आ जाऊं और उस ने मुझे मेरी ड्यूटी भी बता दी।

क्लोदिंग डिपार्टमेंट में चार्ली ही था, उसने मेरा साइज़ चैक किया और दो सैट यूनिफार्म के ला दिए और कहा कि मैं फिटिंग रूम में जा कर इन्हें पहन कर देख लूँ। फिटिंग रूम से बाहर आ कर मैंने ओके कह दिया और चार्ली ने यूनिफारमें पैक कर दीं। चार्ली मेरी तरह बिदेशी ही था और जमेकन था, मुझसे इंडिया की बातें पूछने लगा। मैं बताता गिया और चार्ली ने बताया कि कुछ महीने बाद वोह भी अपने देश जमेका जाने वाला था, वहां उस के माँ बाप भाई बहने रहते थे और उन की एक फ़ार्म थी। यह लोग भी हमारी तरह ही थे। चार्ली बताता गिया कि उन के फ़ार्म में संगतरों के बृक्ष बहुत थे। उस ने यह भी बताया कि उन के देश में संगतरों के बृक्ष आम लोगों के पास थे और जब वोह छोटे होते थे तो संगतरों से फ़ुटबाल खेला करते थे, किक्क मारते, संगतरा फुट जाता और दूसरा और ले लेते। अब मैं सोचता हूँ कि उस वक्त सब बिदेशी लोग हम इंडियन की तरह ही अपने देश को याद किया करते थे। हम सभी एक समय में ही इंगलैंड आये थे और एक जैसे ही थे।

यूनिफार्म ले कर मैं घर आ गिया। जब घर आया तो कुलवंत मेरे गले लग गई, वोह बहुत उदास थी। वोह अकेली घबरा गई थी। बेछक गियानी जी रात की शिफ्ट लगा कर ऊपर सोये हुए थे लेकिन जो कुलवंत की हालत थी मैं समझ सकता था। हम बैठ कर बातें करने लगे और उनको बताया कि जब मैं आया था तो उस वक्त मैं भी इतना ही उदास था। बातें करते करते वोह कुछ समान्य सी हो गई। मैंने उस को बताया कि मुझे काम मिल गिया था और कल को मैंने काम पर चले जाना था। वोह खुश तो हो गई लेकिन अकेली रहने का भय उसे सता रहा था। मैंने उसे समझाया कि धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। कुछ देर बाद हम बाहर को घूमने निकल पड़े ताकि कुलवंत को एरिये की वाक़फ़ी हो सके। हमारा एरिया काफी बड़ा है और चलते चलते हम इंडियन दुकानों की ओर फिर से चले गए और दुकानदार में काम कर रही औरतों के साथ बातें करने लगे, जिस से कुलवंत को कुछ अपनापन सा लगने लगा। हम काफी घूमे और घर आ गए। अब कुलवंत का हौसला कुछ बड़ा। गियानी जी अब सो कर उठ चुक्के थे और नीचे आ गए थे। गियानी जी के खियाल ऐसे थे कि वोह किसी से भी जल्दी ही मिक्स हो जाते थे क्योंकि वोह बातें ही ऐसी करते थे कि लोग उन की तरफ खींचे चले आते थे। धर्म की बातें उन की ऐसी होती थी कि उन में कोई वहम भरम नहीं होता था। गुरबाणी के शलोक पड़के, उन के अर्थ करके समझाते। लेकिन उन का ही बेटा उन को समझ नहीं सका था।

सुबह को मैं जल्दी उठा, यूनिफार्म पहनी और काम पर चले गिया। पुराने दोस्तों से मिला और ड्राइवर के साथ बस ले कर किसी रुट पर चल पड़े। सारा दिन काम किया, घर आया। कुलवंत इंतज़ार कर रही थी और उसने चाय का कप ला कर मेरे आगे रख दिया। आज वोह इतनी उदास नहीं थी क्योंकि गियानी जी ने उसको बोर नहीं होने दिया था। इसी तरह दो हफ्ते हो गए और एक ब्रस्पतिवार् को मुझे तनखाह का पहला लफाफा मिला । घर आ कर मैंने लफाफा कुलवंत को दे दिया। पाउंड देख कर वोह खुश हो गई। एक रविवार को मैं कुलवंत को डार्लेस्टन सिनिमा देखने ले गिया। फिल्म मुझे याद नहीं लेकिन इस से कुलवंत खुश हो गई. ऐसे ही कई महीने हो गए कुलवंत बहुत सी औरतों को जानने लगी थी। उस समय इस रोड पर मेरा और एक और इंडियन का घर ही होता था। धीरे धीरे तीन मेरे दोस्त जो मेरे साथ ही काम करते थे, उन्होंने भी इसी रोड पर घर ले लिए। वोह तीनो शादी शुधा थे। इस लिए उन की पत्निओं के साथ कुलवंत का मेल जोल बड़ गिया। उस समय कोई भी इंडियन औरत काम नहीं करती थी। औरत का काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था। यह तीन दोस्त थे, तरलोचन सिंह, जागीर सिंह और सारधा राम। बाद में एक और दोस्त मोहन लाल टंडन ने भी नज़दीक ही घर ले लिया था। यहां यह भी बता दूँ कि अब जागीर सिंह सारधा राम और टंडन यह दुनिआ छोड़ चुक्के हैं।

कुछ महीने बाद मैंने क्लीवलैंड रोड डैपो से पार्क लेन डैपो शिफ्ट हो जाने के लिए एप्लीकेशन दे दी जो जल्दी ही मंज़ूर हो गई और मैं पार्क लेन डैपो से काम करने लगा। पार्क लेन डैपो में ही मेरा दोसत मोहणी काम करता था, जिसने मुझे यहां काम करने के लिए उत्साह्त किया था। मोहणी दो तीन वर्षों बाद ही इंडिया में एक सड़क हादसे से यह दुनिआ छोड़ गिया था लेकिन मैं हमेशा उस का ऋणी रहूँगा क्योंकि इस काम से मुझे बहुत लाभ पहुंचा था। पार्क लेन में आने का मेरा और भी एक मकसद था। तरलोचन, जागीर, टंडन और सारदा राम यहां ही काम करते थे और रात के समय जब हमारी शिफ्ट एक ही होती थी तो हम पैदल चल कर ही घर आ जाते थे। 1967 से ले कर 2001 तक मैंने पार्क लेन में ही काम किया और यहां ही मेरी रिटायरमैंट हुई। हर साल मुझे हस्पताल चैक अप के लिए जाना पड़ता है और पार्क लेन डैपो के सामने की सड़क पर से हो कर जाना पड़ता है और जब वहां खड़ी बसों को देखता हूँ तो पुराने दिनों की याद आ जाती है लेकिन वहां डैपो में चलते फिरते ड्राइवर सभी नए चेहरे दिखाई देते हैं। अब तो यह डैपो मेरे लिए एक धर्म स्थान जैसा ही बन गिया है।

चलता… . …..

One thought on “मेरी कहानी 91

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख की सभी बातों को ध्यान से पढ़ा। आपके गृहस्थ जीवन की शुरुआत अच्छी हो रही है। पूर्व की ही तरह आज की क़िस्त भी रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है। सादर।

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