नि:संतान
टायना बहुत खूबसूरत है, झबरीली है। वैसे तो हम उसका नाम टीना रखना चाहते थे क्योंकि उसके झबरीले बाल राकेश जी के धर्मपत्नी टीना से मिलते-जुलते थे। मगर ऐसी उद्दंडता अशोभनीय जानकर हमने टायना रख दिया।
रोज़ शाम जब टायना को लेकर मैं बाहर जाती थी तो गर्व से फूल जाती थी। हमारी कॉलोनी में उससे ज़्यादा खूबसूरत और कोई नहीं थी। मिसेज शर्मा को अपनी आर्ची पर बड़ा गर्व था। जब देखो मेरी आर्ची ये…..मेरी आर्ची वो। सुन-सुन कर मेरे कान पक गए थे। हांलाकि मेरी टायना और उनकी आर्ची दोनों ही स्पीट्स थे मगर मेरी टायना की तो बात ही कुछ और थी। क्लब का हेड अँड टेल्स प्रतियोगिता जीतकर टायना ने उनका मुंह ही बंद कर दिया।
मेरी शादी के बाद से मैं इसी कॉलोनी में रह रही हूँ। दो साल हो गए यहाँ। पहले तो मैं घर के कामों से मन बहला लेती थी। मगर घर जब पूरी तरह से सेट हो गया तो फिर शॉपिंग पर जाने लगी। उससे भी एक दिन मन भर गया। फिर एक दौर आया जब मैं ब्यूटी पार्लर में ही नज़र आने लगी। कुछ ही समय में मुझे सारे ब्यूटी टैक्नीक बेकार लगने लगे। फिर किसी ने बताया जिम जाने से स्वास्थ्य लाभ के साथ सौंदर्य भी बढ़ता है। फिर अगले कुछ महीने मेरे जिम में बीता करते थे। मगर बीच में कुछ दिन अपने मायके जाकर आने के बाद जिम छूट गया और बदन में दर्द रहने लगा और मोटापा बढ़ गया। फिर किसी ने बताया की योगा करना चाहिए उससे ऐसा कुछ नहीं होता। फिर तो कुछ महीने मैंने तल्लीनता से केवल योगा किया। पर धीरे-धीरे उसमें भी मेरा जोश ठंडा हो गया और कम होते-होते बिलकुल बंद कर दिया। मगर जब से टायना घर में आई है, मुझे किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं है।
जब टायना को उसके डॉक्टर के पास ले गए थे तो डॉक्टर ने बताया कि टायना अब बड़ी हो गई है और उसे एक साथी की जरूरत है। हमने उसकी ज़रूरत समझी। नतीजन उसने चार बच्चे दिये।
उफ! कुछ समझ नहीं आ रहा। टायना तक तो ठीक था मगर उसके चिल्ल-पिल्ल करते बच्चे मुझसे नहीं संभाले जाएंगें। मेरे घर के बजट पर भी लोड पड़ रहा था और दिमाग पर भी। टीना मैडम को मेरे इस हाल पर बड़ा मज़ा आता था। तभी तो आज-कल रोज़ हमदर्दी जताने के बहाने चली आती है। मगर एक बात उसने अच्छी की। एक बच्चा वो मुझसे मांग कर अपने भाई को भेंट कर आई, जिससे मेरे मुसीबत कुछ कम हुई। मगर उस दिन टायना ने खाना नहीं खाया। बहुत मिन्नत करने के बाद खाना खाया उसने। कहीं न कहीं उसका भी कोई न कोई दिमाग ज़रूर होगा जिससे उसे यह पता चला होगा कि अगर वो खाना नहीं खाएगी तो अपने तीन बच्चों को दूध नहीं पिला पाएगी।
मगर अब इन तीन बच्चों का क्या करूँ। मिसेस शर्मा से पूछने पर पता चला कि वे अपनी आर्ची के बच्चे बेच दिया करती हैं। गुस्सा तो बहुत आया मिसेस शर्मा पर कि इतने दिनों तक मेरी हालत देखती रही और मजे लेती रहीं लेकिन यह राज़ नहीं बताया। खैर! देर से ही सही, उपाय तो मिला। टायना ने उस दिन और उसके बाद तीन दिन तक खाना नहीं खाया। लेकिन आखिर कब तक नहीं खाएगी। खाना खाना तो एक न एक दिन वो शुरू कर ही देगी मगर बच्चों से छुटकारा तो मिल गया।
यूँ ही सात बार टायना माँ बनी लेकिन अब मुझे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि मैंने अब अपनी मुसीबत का हल ढूंढ लिया था। टायना हमारे लिए घर की एक सदस्य हो गई थी। इसलिए जब मैंने गर्भधारण किया और मेरे लिए अपने साथ-साथ टायना का ख्याल रखना मुश्किल हो गया तो उससे पीछा छुड़ाने की बजाए मैंने उसके लिए भी एक दाई रख ली।
इत्तिफाक़ देखिये कि जिस दिन मैंने अपने प्यारे से बेटे को जन्म दिया उसी दिन टायना ने फिर से अपने तीन बच्चों को जन्म दिया।
हमारे खानदान का पहला चिराग है। मुझे तो ससुरालवालों ने सिर पर चढ़ा लिया। बच्चे के घर में आते ही घर की रौनक देखते ही बनती थी। चारों तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ छाई थीं। बस एक ही दिक्कत थी। मेरे घर पर एक बड़ी पार्टी रखी गई थी। मगर टायना के चिल्ल-पिल्ल ने परेशान कर रखा था। पार्टी के पहले उनसे छुट्टी पाना था।
फिर उसके तीनों बच्चों से छुट्टी पाने का काम मैंने अपने देवर को सौंपा और उनसे यह भी कहा कि क्योंकि पार्टी के पहले आतिशबाजी भी होने वाले है इसलिए टायना के लिए ट्रांक्विलिटी के इंजेक्शन लेते आएँ। टायना को आतिशबाजी से बहुत डर लगाता है। दिवाली के समय उस पर काबू रख पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। वैसे तो टायना बहुत शांत रहती है और किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती। लेकिन दिवाली के समय वह क्या कर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। लगता था जैसे एकदम पगला सी जाती थी।
उस दिन मैं आईने के सामने बैठी तैयार हो रही थी। तभी मेरे देवर जी अंदर आए, इंजेक्शन लेकर। मैं दोनों हाथों से चोटी कर रही थी इसलिए उन्हें कहा कि इंजेक्शन ड्रेसिंग टेबुल के ड्रॉअर में डाल दें ताकि मैं बाद में ले लूँ। अभी मैं ठीक से तैयार भी नहीं हुई थी कि मेरी सांस ने अंदर आ कर शोर मचाना शुरू कर दिया कि सब मेहमान आ गए हैं और मेरा कहीं पता नहीं है। मैं भी घबराकर जल्दी-जल्दी में बाहर चली आई।
बाहर सब आतिशबाजियों में लगे थे। मुझसे भी नहीं रहा गया। इतनी खुशियाँ आई हैं कि उत्सव मनाना तो बनता है, खासकर मेरा। सो मुन्ने को परेम्बुलेटर में लिटाकर मैं पटाखों की ओर लपकी। पटाखों के शोर में मुझे कुछ देर तक तो समझ नहीं आया कि शोर पटाखों का है, छोटे बच्चों का या मुन्ना का। कुछ ही पटाखे फोड़ कर जब मैं पीछे मुड़ी तो घृणा से मुझे आँखें बंद कर लेनी पड़ी। टायना मांस के एक लोथड़े को चीर-फाड़ रही थी और घृणा से मेरी तरफ देख रही थी, जैसे कह रही हो कि “देखा कैसा लगता है”।
— नीतू सिंह
अच्छी कहानी !
शुक्रिया
सुन्दर
शुक्रिया
वाह वाह , कहानी बहुत अच्छी लगी .
वाह वाह , कहानी बहुत अच्छी लगी .
शुक्रिया