ग़ज़ल
पठानकोट के शहीदों के नाम, मेरा कलाम,
उनकी शहादत को सलाम :
अगर हवा थी, चिनगारी थी, आग़ लगाने वालों में,
तो कुछ सूखे पत्ते भी थे, बाग़ जलाने वालों में।
हरे – भरे कुछ पेड़ जल गये गद्दारों की साज़िश में,
नाम लिया जाएगा जिनका बाग़ बचाने वालों में।
आग़ की लपटें क्या समझेंगी वो ज़ज़्बा, जो होता है,
आग़ज़नी के मनसूबे नाकाम बनाने वालों में।
धन्य हैं अपने वीर पुरुष जो हर दम आगे रहते हैं,
मासूमों की, मज़लूमों की जान बचाने वालों में।
देश, धर्म और शर्म से बढ़ कर जिनको पैसा होता है,
‘होश’, वही हैं देश का अपने मान घटाने वालों में।
बहुत अछे .