‘सरपंच पति’ संस्कृति के कारण कठपुतली बनी महिला सरपंच
भारत की आजादी के इतने सालों बाद जहां महिलाएं हर क्ष्ोत्र में आगे बढ़ रही और स्वयं निर्णय भी ले रही हैं, वहीं महिला जनप्रतिनिधि अपने अधिकार और निर्णय का प्रयोग नहीं कर पा रही हैं। महिला सरपंच के पति यानी ‘सरपंच पति’ सारे फैसले खुद करते हैं। देखा जाए तो संविधान में महिलाओं को सरपंच पद के लिए कई अधिकार दिए गए हैं, जिससे गांव के विकास में महिलओं की भागीदारी बढ़े और गांव की तरक्की के साथ देश का विकास होें। लेकिन महिला सरपंच अपने इच्छा से निर्णय नहीं ले पाती हैं, महिला सरपंच बनने के बाद भी चाहरदीवारी में के आगे कदम नहीं बढ़ा पाती हैं, केवल सरपंच पति के लिए गए फैसलों पर दस्तखत करती हैं। सरपंच पति की संस्कृति यह बताती है कि हमारे समाज में महिलाओं को अभी भी पुरुषों की पुरुषवादी मानसिकता से आजादी नही मिली है। देखा जाए तो इस तरह से पंचायती राज का सपना धरा का धरा रह गया, जहां पर विभिन्न वर्गों की महिलाओं द्बारा विकास में भागीदारी और निर्णय लेने के लिए, संरपच के चुनाव के लिए महिलाओं के लिए सीट आरक्षित किया गया ताकि महिलाएं भी जनप्रतिनिधि बनें और गांव के विकास में अपनी भूमिका निभाएं। लेकिन इन सबके बावजूद, महिला सरपंच अपने पतियों की दखलअंदाजी के कारण कठपुतली बनी हुई हैं। पंचायत के सारे फैसले उनके पतियों द्बारा लिए जाते हैं। ऐसे कई मामले आए हैं, जिनमें दबंग सरपंच पति की शिकायत भी की गई कि महिला सरपंच का पति गांव के लोगों को डराता और धमकाता है।
पंचायतीय व्यवस्था से ग्रामीण विकास का सपना
भारत की आत्मा गांवों में बसती इसीलिए ग्रामीण विकास के जरिए ही देश तरक्की कर सकता है। गांवों की अपनी समस्या है, यहां पर महिलाओं की आजादी, जाति प्रथा, छूआ-छूत जैसी बुराईया आज भी है। गांव में आय का साधन ख्ोती है, इस खेती को उन्नत बनाने के साथ ही यहां पर शिक्षा की बदहाली, साफ-सफाई, पेय जल की व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा, खराब सड़कें, बिजली की समस्याएं हैं। ऐसे में गांव में हर लोगों की भागीदारी जरूरी है। आधी आबादी की तरक्की के लिए उन्हें न्ोतृत्व प्रदान करना, पंचायती व्यवस्था की देन है लेकिन महिलाएं जनप्रतिनिधि यानी सरपंच तो बन जाती हैं। लेकिन सरपंच पति की पुरुषवादी सोच के कारण वह हकीकत में जनप्रतिधनिधि नहीं रहती। देश में लगभग तीन चौथाई आबादी गांव में बसती है और कृषि ही अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है, देश में ग्रामीण विकास के बिना राष्ट्र के विकास की कल्पना ही भला कैसे संभव है? यही कारण है कि योजनाबद्ध विकास की प्रक्रिया के प्रथम सोपान यानी पहली पंचवर्षीय योजना से ही ग्रामीण विकास सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में शामिल रहा है। देश की बहुत बड़ी जनसंख्या, विस्तृत क्षेत्रफल तथा सीमित संसाधनों के कारण अपेक्षित परिणाम चाहे नहीं मिल पाए है, परंतु यह भी सत्य है कि सरकार के अब तक के प्रयासों से ऐसा बुनियादी ढांचा खड़ा हो चुका है, जिसके बल पर ग्रामीण विकास का सपना साकार होने की आशा की जा सकती है, लेकिन ग्रामीण क्ष्ोत्रों में महिलाओं की वास्तविक भागीदारी की आवश्यकता आज भी बनी हुई है।
सरपंच पति के कारण महिला सरपंच की वास्तविक भागीदारी नहीं
भारतीय संविधान और उसमें होते रहे संशोधनों में इस तथ्य को बराबर महसूस किया जाता रहा कि महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक क्षेत्रों में बढ़ाना आवश्यक है। सन् 1959 में बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। तब भी यह माना गया कि देश का समग्र विकास महिलाओं को अनदेखा करके नहीं किया जा सकता। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा पंचायतों में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1992 में 73 वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया। इस संशोधन अधिनियम के द्बारा ग्राम सभा का गठन होना अनिवार्य हो गया और ग्राम पंचायतों, और सदस्यों की कुल संख्या की कम से कम एक तिहाई संख्या महिलाओं की कर दी गई। इस व्यवस्था का प्रभाव हुआ कि देश भर में लाखों महिलाएं पंचायतों के नेतृत्व हेतु मैदान में आ गईं। इस संशोधन के माध्यम से जहां एक और पंचायती राज व्यवस्था को देश के लोतांत्रिक प्रशासन के तृतीय सोपान के रूप में संवैधानिक स्वीकृति प्राप्त हुई वहीं दूसरी ओर महिलाओं के अस्तित्व और अधिकार को भी स्वीकार किया गया। संविधान का यह प्रावधान महिलाओं की छिपी शक्ति को उजागर करने का सार्थक कदम है। ग्रामीण क्ष्ोत्रों में महिलाओं की प्रतिनिधित्व को तो बढ़ाया लेकिन ‘सरपंच पतियों’ की बढ़ती संस्कृति के कारण वास्तविक स्थिति इससे इतर ही है। मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के हन्नूखेड़ी ग्राम पंचायत में पंचायत चुनावों में महिला सीट से महिला सरपंच निर्वाचित हुई। जब शपथ लेने बात आई तो निर्वाचित महिला सरपंच की जगह उनके पति ने शपथ ली। इस तरह की खबरों से पता चलता है कि महिलाओं का निर्वाचन तो कागजों में होता है लेकिन महिलाओं की वास्तविक भागीदारी गांव के विकास में नहीं होती है। वहीं सरपंच पति के हस्तक्ष्ोप के कारण महिला सरपंच गांव का नेतृत्व कैसे कर पाएगी? इस तरह की घटनाएं, ही आज गांव की हकीकत बन गई हैं।
महिला प्रतिनिधि के कारण गांवों की बदलती तस्वीर
जहां तक ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक दृष्टि से ग्रामीण महिलाओं की स्थिति का प्रश्न है, वह स्थिति दयनीय है। फिर भी जनतांत्रिक माहौल व महिलाओं की भागीदारी के चलते स्थितियों में बदलाव आना शुरू हो गया है। कुछ समय में देश के कुछ हिस्सों में ग्रामीण महिलाओं ने अभूतपूर्व जागृति का परिचय दिया है। मणिपुर, आंध्र प्रदेश तथा हरियाणा में शराब बंदी लागू करने के पीछे ग्रामीण महिलाओं के आंदोलन की ही एकमात्र भूमिका रही है। यहां की महिला सरपंच इन मुद्दों पर सामने आ रही हैं। मणिपुर में तो ग्रामीण महिलाओं ने न केवल शराब बंदी के लिए आंदोलन चलाया बल्कि शराब पीने वाले पुरूषों का सामाजिक बहिष्कार किया और शराब पिए हुए पुरूषों की पिटाई करने तक का आंदोलन चलाया। इसमें अपने परिवार के पुरूषों तक को भी नहीं बख्शा। इसके अलावा अन्य राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों में इन चुनी हुई महिलाओं ने सामाजिक बुराईयों तथा अन्याय के प्रति संघर्ष का बिगुल बजाकर उन पर काबू पाने में आशातीत सफलताएं अर्जित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए है। लेकिन वहीं इसका दूसरा पक्ष भी है, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार जैसे राज्यों में गांवों के विकास में महिला सरपंच की उल्लेखनीय भूमिका नहीं मिल पा रही है। कारण साफ है, यहां पर महिलाओं को भागदारी और निर्णयों से दूर रखा जाता है। पंचायत के चुनाव में आरक्षित महिला सीट पर महिलाओं को प्रतिनिधित्व जरूर मिलता है लेकिन चुनाव प्रचार के लिए पति ही कैंपेन करता है। महिला उम्मीदवार महिला आरक्षित सीट के कारण उतारी जाती है, जबकि पर्दे के पीछे पुरुष मानिसिकता ही हावी रहती है। महिला सरपंच अपने अधिकारों और दयित्व का निर्वहन नहीं कर पाती हैं क्योंकि सरपंच पति खुद सारे फैसले लेते हैं और न मानने की स्थिति में दबाव भी बनाते हैं।
बंद हो ‘सरपंच पति’ कल्चर
पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देकर जहां उनकी भागीदारी को एक हद तक बढ़ावा मिला गया है। वहीं ग्रामीण परिवेश की महिलाएं अभी भी स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पा रही हैं, शिक्षा का आभाव और सामाजिक बंधन के कारण वे जनप्रतिनिधि के रूप में तमाम अधिकार और दायित्व पाने के लिए आगे भी आ रही हैं। निरक्षरता, गरीबी तथा अंधविश्वास के बंधनों को तोड़ना मुश्किल होते हुए भी अब जरूरी हो गया है। कम से कम प्रारंभिक चरण में ही सही, शक्तिशाली लोग अपने फायदे के लिए अनमने ढंग से ही सही, महिलाओं को चुनाव में खड़ा तो कर रहे हैं। आरक्षण की इस व्यवस्था से महिलाओं की विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु एक मौन-क्रांति के युग का शुरू हो गया है, जिससे आने वाले वर्षो में 5० प्रतिशत आरक्षण के बाद और अधिक सकारात्मक परिणाम निश्चय ही सामने आएंगे। लेकिन जिस तरह से सरपंच पति महिलाओं की आजादी को बांधने की कोशिश करते हैं, तब सरकार को कोई ठोस पहल करनी चाहिए कि सरंपच पति का पंचायत में प्रभावित करने वाली गतिविधियों पर रोक लगाए और शिकायत मिलने पर एक्शन लिया जाए। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय पंचायती दिवस समारोह में सरपंच पतियों के हस्तक्ष्ोप की पनपती कल्चर को खत्म करने के लिए कहा। यह चिंता जायज है, भले ही पंचायतों में महिलाओं की स्थिति को लेकर प्रश्न उठाया जा रहा है, परंतु यह धारणा बिलकुल गलत है कि महिलाएं कोई जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं है या उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। वास्तविकता यह है कि अब तक महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया था और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ने के रास्ते में अड़चने पैदा करने का ही प्रयास किया गया। ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब भी महिलाओं को आगे आने का अवसर मिला है, उन्होंने इसका पूरा-पूरा उपयोग किया है। जहां पर महिला सरपंच स्वतंत्र है, यानी सरपंच पति का हस्तक्षेप नहीं है, वहां पर गांवों में शिक्षा, पेयजल, सड़कें दुरुस्त हैं, जनजागरुकता में महिला समूह की भीगीदारी भी बढ़ी हैं, ग्रामसभा की बैठक में महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है और अपने सुझाव भी रखती हैं।
— अभिषेक कांत पाण्डेय