सामाजिक

अकेले हैं तो क्या गम है

सिंगल मॉम – सुपर मॉम। समाज में मज़बूती से फैलती जा रही इस अवधारणा से सभी परिचित हैं। ऐसा   माना  जाता  है कि समाज का आधार परिवार है। समाज की सबसे अहम कड़ी के रूप में परिवार जितना सुसंस्कृत होगा ,देश उतना ही सबल होगा। लेकिन इस धारणा में परिवार की बागडोर अब माता – पिता के हाथ से निकल कर केवल माता के हाथों केंद्रित होता दिख रहा है। सिंगल वुमन बखूबी अपना जीवन जी रही हैं। अपने बच्चों का पालन – पोषण भी अपने दम पर  कर रही हैं। आखिर क्या कारण है कि औरतें अकेले जीवन निर्वाह के लिए बाध्य हैं ?यह जानने के लिए किये गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि अकेले रहना कहीं उनकी मज़बूरी है तो कहीं स्वतः उत्पन्न इच्छा।एक स्कूल में कार्यरत  शिक्षिका अभिलाषा सिंगल हैं ,उम्र बयालीस साल। सात बहनों में चौथे नंबर की अभिलाषा की केवल सबसे बड़ी बहन  की ब्याह हुई। फिर पिता की असाध्य बीमारी ने उन्हें खाट से जकड़ दिया। उपयुक्त समय निकल गया और वह  अविवाहित ही रह गयीं । छोटी बहनों का विवाह उन्होंने अपनी देख – रेख में करवाया।

३५ साल की मीणा कुलश्रेष्ठ का विवाह बारहवीं के बाद ही हुआ था। एक बच्ची के जन्म के बाद पति की  प्राइवेट नौकरी से छटनी हो गयी। फिर हुआ देर रात शराब पी कर घर आना और पत्नी के साथ मार – पीट करना।  रोज़ – रोज़ के झगडे से तंग आकर मीणा ने तलाक की अर्ज़ी दे दी। फिलहाल बैंक में कार्यरत मीणा अपनी बारह साल की बेटी के साथ काफी खुश है।

अपने जीवन के बत्तीस वसंत अकेले गुजारने के बाद इसी साल सहायक प्राचार्य  के पद से रिटायर हुई आशा सिन्हा ने बताया कि उनका प्रेम विवाह हुआ था, शुरुआत  के पांच साल तो अच्छी तरह बीते पर फिर किसी साधू के चक्कर में आकर पति ने एक बार जो घर छोड़ा ,फिर लौट कर नहीं आये। उसने अपने बेटे को इंजीनियरिंग की शिक्षा  दिलाई और अब वह बेटे के पास चली जायेगी। ऐसा ही एक और केस ममता नीमा का है। बिन बताये घर छोड़ कर पति ने कानपुर में जाकर दूसरी गृहस्थी बसा ली। बेटे के विवाह के समय वो आना चाहते थे पर ममता ने साफ़ मना करते हुए कह दिया कि जिस वक़्त उनकी सबसे ज्यादा ज़रुरत थी उस  समय तो उन्होंने अकेला छोड़ दिया,अब आने की क्या ज़रुरत है?

कारण कुछ भी हो ,अकेले रहने का संघर्ष सिंगल वुमन को  जीवट बना देता है। घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी तनाव तो देती है पर गम नहीं। वे खुश हैं क्योंकि वे स्वतंत्र हैं। निर्णय लेने की क्षमता है और अपना अच्छा – बुरा सोचने की आज़ादी। बैंक के काम हों या यात्रा पर निकलना हो,सब जगह मुस्तैदी से वे डटी रहती हैं।  अकेले काम करने का तजुर्बा इन्हे साहसी बना देता है।  फ़िल्मी हस्तियों में सिंगल रह कर अनाथालय आदि से बच्चे को गोद लेना आम है। लेकिन उनसे परे भी अब छोटे- बड़े  शहरों में सिंगल वुमन बच्चे को गोद लेकर उनका पालन – पोषण कर रही हैं।इससे उनका अपना अकेलापन भी दूर हो जाता है और समाज कल्याण भी।जीवन के तमाम छोटे – बड़े फैसलों के लिए पति पर आश्रित रहने वाली मनका ने बच्चों के सेटल हो जाने के बाद साठ साल में जब तलाक की अर्ज़ी दी तो लोगों ने बहुत समझाया कि बुढ़ापे में यह गलत निर्णय  क्यों लिया ,जीवन के बचे  – खुचे  कुछ साल भी उनके साथ  निभा देती। मनका ने एक टूक उत्तर दिया ,” दहेज़ कम लाने की प्रताड़ना और निर्धन माता – पिता की बेटी होने की उलाहना सुनते – सुनते जीना हराम हो गया था। कोई और सहारा न होने के कारण बच्चों की खातिर पति  की बातें सुनना उसकी मज़बूरी थी। लेकिन अब बचे हुए कुछ साल वह सुकून से जीना चाहती है। एक एन. जी. ओ. से संपर्क साध कर काफी आत्मविश्वास के साथ वह जी रही हैं। सिंगल वुमन सुपर वुमन बन कर समाज में मिशाल कायम कर रही हैं। यह बदलाव नारी – मुक्ति आंदोलन का रीढ़ है। दहेज़ – प्रथा और महिला उत्पीड़न की समस्याओं के अंत होने की पहल है तथा आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ता कदम।

घुट – घुट कर ज़िन्दगी बिताने से अच्छा है अलग रह कर चैन से जीवन बिताया जाय। यह बदलाव पारम्परिक व्यवस्था से अलग है ,पर स्त्रियों को अपने अस्तित्व की पहचान हो गयी है।  एक सुदृढ़ सामाजिक संस्था में स्त्री – पुरुष दोनों को निर्णय लेने का अधिकार है। स्त्रियाँ अनेक अर्थों में पुरुष की अनुगामिनी है पर गुलाम नहीं।

हाँ सिंगल वुमन को अपनी सुरक्षा से जुड़े पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले तो किसी पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए। घर से बाहर जाते समय घर पर अकेले बच्चे को किसी विश्वासी परिजन या मित्र पर छोड़ कर जाएँ। स्वयं बस या ट्रेन में अकेले यात्रा के दौरान अपनी सुरक्षा से सम्बंधित उपकरण ,स्प्रे या क्लिप आदि साथ रखें। अगर कार्यस्थल पर आपके अकेलेपन  फायदा उठा कर  आपका शोषण हो रहा है तो अवश्य इसकी शिकायत दर्ज़ कराएं। महिला आयोग और नारी सुरक्षा से जुड़े सामाजिक  संस्थाओं का आवश्यकतानुसार उपयोग करें। याद रखें समाज किसी नए परिवर्तन को तुरंत खुले दिल से नहीं अपनाता है। कटाक्ष होंगे तो निराश न हों। अपनी ज़िन्दगी अपने तरीके से शांतिमय बनाने का आपको पूरा अधिकार है। स्वयं पर भरोसा करें व आशावादी बनें।

अभिषेक कांत पाण्डेय

हिंदी भाषा में परास्नातक, पत्रकारिता में परास्नातक, शिक्षा में स्नातक, डबल बीए (हिंदी संस्कृत राजनीति विज्ञान दर्शनशास्त्र प्राचीन इतिहास एवं अर्थशास्त्र में) । सम्मानित पत्र—पत्रिकाओं में पत्रकारिता का अनुभव एवं राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक विषयों पर लेखन कार्य। कविता, कहानी व समीक्षा लेखन। वर्तमान में न्यू इंडिया प्रहर मैग्जीन में समाचार संपादक।