ग़ज़ल
किसी को गले लगाए ज़माने गुज़र गए
कोई गीत गुनगुनाए ज़माने गुज़र गए
अहसास दर्द का क्यों कमतर नहीं होता
जब दिल पे चोट खाए ज़माने गुज़र गए
रूठे वो इस तरह कि सूरत ना दिखी फिर
दर पे नज़र जमाए ज़माने गुज़र गए
मेरे लबों पे है ये बस मजलिसी तबस्सुम
मुझे दिल से मुस्कुराए ज़माने गुज़र गए
होने लगी है अब इसे भी हाजत ए रफू
ये पैरहन सिलाए ज़माने गुज़र गए
आए तूफान सफर की लज़्ज़त तो कुछ बढ़े
कश्ती को डगमगाए ज़माने गुज़र गए
आदत सी हो गई है अँधेरों की अब हमें
तारों को झिलमिलाए ज़माने गुज़र गए
इस राख में बचा नहीं कोई शरार अब
हमें अपना घर जलाए ज़माने गुज़र गए
यारों को मिले वक्त तो आ के करें दफन
मुझे तो ज़हर खाए ज़माने गुज़र गए
— भरत मल्होत्रा
उत्तम ग़ज़ल !