निरूपाय
जब रवि जाए ढल
धावा बोलते हैं
सपरिवार, सशक्त, सूक्ष्म सनकी सबल
रक्तरंजित रक्तार्थ
सांध्यगीत सुनाते
आरती गाते
जैसे मच्छर दल
जब चिलचिलाती धूप पर
किसी प्रकार
अदना-सा, आधा-अधूरा आकर
बादल थुप जाए
वैसे सब हों एकत्रित
एकदम प्रसन्नचित्त
कालूराम की दुकान पर
जब मिलते मित्र-मंडली मित्रवत
दूर होती है
सारी संचित शंकाएं, सूनापन, संताप शत-शत
ठहाके होते या
चुस्कियों का शोर
चारो ओर
होता रत
जब लगा हुआ था जमघट
फैली थी वहाँ
मधुर मस्ती, मंद-मंद मुस्कुराहट
चाय के पत्तीले
गरम करता कल्लूराम
जैसे किया उस शाम
गरम फटाफट
जब कुल्हड टेबलों पर पटकी जाती
और सबकी जिह्वा
बुदबुदाती, बड़बड़ाती, बौखलाती, बढ़ आती
चाय की ओर
तब सामने के दरवाज़े
से आती कुछ आवाज़ें
ध्यान बँटाती
जब उस घर से चीत्कार आती
सब की सब आँखें
ठूँठ-सी ठिठक, ठनक, ठहराती
घनानंद के घर पर
जहाँ से आती स्त्री पुकार
खाकर मार लगातार
वह चीखती-चिल्लाती
जब उठा युवक एक मर्यादा मज्जित
देख घनानंद, जो
पीटता पत्नी, पुरुषाशिन पति पतित
बोला अपनी चाय छोड़
जब शोर न हुआ मंद
“क्यों करते हो घनानंद
पुरुषत्व को लज्जित।”
जब धधकती ज्वाला में पड़ा घी
तब घनानंद
घायल, घवाहिल घूरता घमंडी
लपका उस ओर
मोटी गर्दन मोड़
धूल धूसरित छोड़
अपनी स्त्री
किया लज्जित सबको जो थे खड़े
पूछकर एक
साधित सटीक सवाल, सुन सड़े
सबके कान
“क्या है स्त्री से संबंध?”
तब कान कर बंद
सब चल पड़े
जब दुकान हुई बंद
देखती तब
निर्निमेष, नीरयुक्त, निरंतर, निस्पंद
एक जोड़ी आँखे
अवलम्ब टटोटलती
पर कुछ न बोलती
देखती घोर अंध
जब शांत हुआ सब
कल्लूराम की दुकान
अकिंचन-सी अकारण अमर्यादित अब
खड़ी है और वहीं
टेबल पर पोंछा धरा
और बासी चाय से भरा
एक कुल्हड़ लबालब
— नीतू सिंह
बहुत खूब !
शुक्रिया जनाब
बहुत खूब !