हम दोनों
एक ही बिल्डिंग में, एक ही फ्लोर पर, एक ही डिपार्टमेंट में काम करते हुए एक लंबा अरसा बीत चुका था और हमारी बातें केवल गुड मार्निंग और खोखली मुस्कानों तक सीमित हो गई थीं या फिर ज़्यादा से ज़्यादा ‘फलां सर ने बुलाया है या फलां-फलां तुम्हें फलां-फलां काम के लिए ढूँढ रहा है।‘ एक लम्बे अरसे से हमने आगरावाला के यहाँ चाटें नहीं खाईं। प्रसाद में हर हफ्ते चार्टबस्टर फिल्में लग रही हैं, मगर आखिरी फिल्म आठ महीनों पहले देखी थी। पब्लिक गार्डन में बैठ के चाय भी नहीं पी और न ही ठहाके लगाने के लिए गायत्री मैडम से डाँट ही खाई है। यहाँ तक की आठ महीने से न सुल्तान बाजार से कपड़े खरीदे हैं न उनकी मैचिंग चूड़ियों के लिए चारमीनार गए हैं। अब तो सब कपड़े पुराने हो चले हैं।
ऐसा नहीं था कि हमारी कोई लड़ाई हुई थी, कोई जलन या शिकायत थी। ये सब तो बस यूँही हो चला और हमने होने दिया। जो काम का प्रेशर हमारे लिए कभी मज़ाक का हिस्सा होता था अब हमारे बीच आ गया था। पर काम तो पहले भी था और कहीं ज़्यादा था। पर अब क्या हुआ। शायद यह सब आठ महीने पहले संसदीय समिति के उस दौरे के दौरान ही शुरू हुआ।
संसदीय समिति के दौरे का काम हमने बड़े उत्साह से हाथों में लिया था। अलग हटकर कुछ काम मिले तो उसका अपना ही मज़ा था। उस पर काम बहुत महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी वाला हो तो उसका मज़ा दुगुना हो जाता था और साथ ही साथ अपना महत्व बढ़ाने का मौका भी मिलता था।
उस रात पॉवरप्वाइंट बनाते-बनाते ऑफिस में ही सुबह के चार बज गए थे। हमने शर्मा सर से कहा भी था कि हम पॉवरप्वाइंट घर से बनाकर ले आएंगे। आखिर मेरा और श्वेता का घर पास-पास ही तो है। मगर नहीं, शर्मा सर को तो पूरा भरोसा था कि ये कल की लड़कियों के भरोसे इतना महत्वपूर्ण काम छोड़ दिया तो संसदीय समिति के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। इनका क्या है यहाँ से कह कर निकल जाएंगी कि सुबह तक सारा पॉवरप्वाइंट चकाचक बना देंगी मगर यहाँ से निकलेंगी तो सुबह ही नज़र आएंगी और ऐसे बहाने के साथ की कुछ बोलते भी नहीं बनेगा। लड़के हों तो चार गाली देकर मन की भड़ास भी निकाली जा सकती है। हम लड़कियों को क्या कहोगे। एक दिन खीझ में कहा तो था, इतना कुछ। हम निर्लज्ज लड़कियों ने क्या किया। यहाँ, सामने तो मुंह लटकाए रहीं और तुरंत वहाँ लेडीज़ टॉयलेट में जाकर ठहाके लगाने लगीं। यह तक नहीं सोचा कि आवाज़ बाहर तक आ रही है। बाहर आने पर गायत्री मैडम ने कहा “किस दिन अकल आएगी। शर्मा सर केबिन के बाहर ही खड़े थे और तुम्हारी आवाज़ पूरे फ्लोर पर गूँज रही थी।“ अक्ल तो हमें आई नहीं, हाँ फिर से हंसी ज़रूर आ गयी।
मगर आज तो वो कहते हैं न ‘वाट लगना’ वही हो रहा था यहाँ। मगर हम शैतान इतनी आसानी से कहाँ मानने वाले थे। हमने भी कह दिया कि पैरेडाइस की बिरयानी और पुल्ला रेड्डी के समोसों बिना हमसे काम नहीं होगा। सर भी क्या करते, झक मारके लाना ही पड़ा। नौ बजते-बजते पॉवरप्वाइंट का बहुत सुंदर खाका तैयार हो गया था। सर तो ख़ुशी में गाना तक गुनगुनाने लगे – ‘लागा चुनरी में दाग’। और हम दोनोँ खुद को मुस्कुराने से रोक नहीं पाए। मगर इसमें आर्गेनाईजेशन का डेटा फीड करते जाना बहुत टेढ़ी खीर साबित हुआ। अलग-अलग डाक्यूमेंट्स से डेटा खोज-खोज कर भरना हमारी उलझनों को और साथ ही साथ स्लाइड्स को भी बढ़ाता जा रहा था। जहां लगता था कि बस दो-तीन स्लाइड्स और हैं वहीँ दस स्लाइड और बन जाती थी और चूंकि समिति में बिहार के बहुत सदस्य थे इस लिए स्लाइड भी दुगुनी बनानी थी यानी हिंदी और अंग्रेजी दोनों में। होते-होते बत्तीस स्लाइड और बन गई। मगर हिंदी में बड़ी फजीहत हो रही थी। थोड़ी बहुत हिंदी टाइपिंग सीखी ज़रूर थी मगर फटाफट जितनी नहीं। सर ने हमारी दिक्कत समझी और राजभाषा विभाग के हेड को फोन लगाया।
एक घण्टे बाद हमारी मदद के लिए एक जनाब पहुंचे। अभिषेक। हमारी समस्या तो सुलझ गई मगर जाने सेक्यूरिटी गार्ड को क्या सूझी उसने ऑफिस खाली समझ कर मेन स्विच ऑफ़ कर दिया। बनी-बनाई बत्तीस स्लाइड्स केवल नौ तक रह गई। झुंझलाहट में मैंने श्वेता को क्या नहीं सुना दिया। “बेवकूफ …..सेव नहीं कर सकती थी…..बीच-बीच में। बनी-बनाई मेहनत पर पानी फिर गया। एकदम अक्ल से पैदल।“ मैं यह तक भूल गई कि वहीं खड़ा अभिषेक क्या सोचेगा। पर पता नहीं क्यूँ जब से अभिषेक यहां आया है श्वेता यह कभी नहीं भूलती कि अभिषेक क्या सोचेगा। इस वक्त उसे मेरी उलाहना उतनी बुरी नहीं लग रही थी जितना अभिषेक का वहां होना क्योंकि एक-दूसरे को हम बिना दिल पर लिए इससे भी बुरी तरह से झिड़कते थे। मैं अभिषेक की उपस्थिति बिलकुल भूल चुकी थी। पर वह नहीं भूला था और न श्वेता ही और इसी बात को जताने के लिए वह मेरे सामने आया और मुझे समझाने लगा “दिमाग खराब करने से या किसी को दोष देने से कुछ होने वाला तो है नहीं। जब सारा काम फिर से करना ही है तो क्यों न ठंडे दिमाग से हम गई हुई स्लाइड्स दुबारा बनाने में अपनी ताकत लगाएं।“ अब मुझे होश आया। पता नहीं श्वेता को कितना बुरा लगा पर मैं यह नहीं समझ पाई कि मेरी दोस्त की वक़ालत करनेवाला यह शख्स आखिर है कौन। यह बात मेरे और श्वेता के बीच की है तो वह बीच में क्यों कूद रहा है। खैर श्वेता काम में फिर से जुट गई। मैं भी और अभिषेक भी। लुटी हुई स्लाइड्स तो हमने फिर से कमा ली मगर रात के एक बज गए और आगे की स्लाइड्स तो हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती ही चली जा रही हैं बढ़ती ही चली जा रही हैं। एक से दो और दो से तीन बज गए। ऐसा आभास होता था कि बस दो-तीन ही स्लाइड्स बाकी हैं। होते-होते सुबह के चार बजे हम पूरा पॉवरप्वाइंट बना सके।
सुबह जल्दी उठना था। दस बजे तक हाईटेक सिटी पहुंचना था। सुना है पिछली बार समिति को बंजारा हिल्स के ताज में ठहराया गया था फिर इस बार क्या सूझी जो उस कोने-खण्डर वाले फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट में ले गए। अभी तो फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट ठीक से बसा भी नहीं और ये लेमन ट्री वाले वहां पहुंच गए और होटल भी बना डाला। खैर यहां से दूर है तो जल्दी निकलना पड़ेगा। क्यों न श्वेता के घर जल्दी जा कर उसे भी साथ ले लूं। वैसे भी वो बहुत लेट लतीफ है। पर वहां जाकर पता लगा कि वो तो पहले ही निकल चुकी है। मुझे आश्चर्य हुआ खैर मैं जब लेमन ट्री पहुंची तो देखा श्वेता और अभिषेक पहले ही मौजूद थे और उनके बीच गूफ्तगू चल रही थी। मैंने शर्मा सर से धीरे से पूछा “अभिषेक यहाँ क्या कर रहा है। उसे तो नहीं बुलाना था फिर…..।“ उन्होंने बताया कि कल रात श्वेता ने शर्मा सर से उसे लाने की हिमायत की थी ताकि अगर हिंदी वाली स्लाइड्स में कुछ फेर बदल करनी हो, तो कोई ज़िम्मेदार व्यक्ति साथ हो। मुझे पहले आश्चर्य हुआ कि मेरे और श्वेता के बीच ये क्या हो रहा है। पहले तो हम कभी अलग-अलग कहीं नहीं जाते थे। और पहले तो वो ऐसा कुछ नहीं करती थी जो मुझे पता न हो। लेकिन बाद में आश्चर्य नहीं दुःख हुआ क्योँकि मुझे हमारे बीच बनती खाई नज़र आ रही थी। समिति तो निपट गई मगर हमारा जीवन बदल गया। हम वहीं उसी फ्लोर पर काम करते थे मगर एक दूसरे से बहुत कम बात करते थे। एक औपचारिक हंसी से ज्यादा कुछ नहीं। कल तक जिन लोगों को हमारे ठहाकों से तकलीफ थी वो उसे सुनने के लिए तरस गए। कई लोगों को यह भ्रम भी हो गया था कि हमारा तबादला हो गया है या फिर अब हम इस फ्लोर पर बैठते ही नहीं हैं। यूँहीं एक दिन गायत्री मैडम हम दोनों से पूछ बैठी –“तुम दोनों के बीच कुछ हुआ है क्या।“ हम दोनोँ साफ़ मुकर गए। मैं खुद नहीं जानती थी कि हमारे बीच आख़िर हुआ क्या है और जाने क्यूँ श्वेता से ये पूछने का साहस भी नहीं हो रहा। मैं बस अटकने लगा रही हूँ कि क्या हुआ है। श्वेता अभिषेक को पसंद करने लगी होगी। उस दिन बुकस्टोर से निकलते हुए मैंने उन्हें आगरावाला में चाट खाते हुए देखा; ठीक उसी जगह जहां कभी हम दोंनो खाते थे। लेकिन यह बात वो मुझे बता भी तो सकती है और नए रिश्ते बनाने के लिए पुराने तोड़े जाऐं यह ज़रूरी तो नहीं। क्या उसे लगता है कि मैं अभिषेक को उससे छीन लूँगी या उसे उसके नए रिश्ते के लिए वक्त नहीं दूंगी। मुझे अभिषेक में कोई दिलचस्पी नहीं यह तो वह पक्का जानती होगी। मगर दूसरा सवाल कि क्या वो सोचती है कि मैं उनके रिश्ते के लिए समय नहीं दूँगी; इसका जवाब तो वही दे सकती है। पर जब हमारे बीच बात ही नहीं होती तो जवाब कहाँ से मिलेगा। छः महीने बीत चुके हैं। अब वो तो कुछ बोल ही नहीं रही तो मैं ही जाकर पूँछूँ। यह सोच मैं उसकी ओर चल पड़ी। मगर उस तक पहुँचते-पहुँचते मेरे विचारों ने फिर करवट ली। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दोनों के रिश्ते में मैं बहुत डॉमिनेटिंग हूँ और इसलिए वो मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए ऐसा कर रही है। मैं अपने रिश्ते में अभिषेक को प्रॉब्लम समझ रहीं हूँ जबकि……प्रॉब्लम मैं खुद हूँ। यह सोचते-सोचते मैं उसके करीब तो पहुंच गई मगर मैंने दाईं तरफ मुड़ कर वाशरूम की राह ली। इस तरह मेरा पहला और अंतिम प्रयास असफल रहा। मैंने इस बारे मैं सोचना ही छोड़ दिया। अब तो बस रोज़ यही सोच कर ऑफिस जाती थी कि आज हम दोनोँ में से किसी एक को ट्रान्सफर मिल जाए जिससे रोज़-रोज़ की ये अजीब सी कातिलाना चुप्पी से छुट्टी हो। कमाल की बात है न की कुछ महीनों पहले मैं जिसके साथ ट्रान्सफर की चाहत रखती थी अब उससे जल्द से जल्द अलग ट्रान्सफर चाहती हूँ।
आठ महीने हो गए अब तक ट्रान्सफर का बुलावा तो नहीं आया मगर एक दिन शर्मा सर ने सुबह-सुबह केबिन में बुलाया। मैं तो इसी उम्मीद के साथ गयी थी कि शायद ट्रान्सफर की कोई न्यूज़ हो क्योंकि एनुअल ट्रान्सफर का सीज़न तो शुरू हो गया है, कई लोग निकल भी गए हैं। सर ने घुसते ही कहा कि वे हम दोनों को कल शाम से ही ढूंढ रहे हैं। यहां हम दोनों मतलब मैं और श्वेता। सर को कुछ-कुछ आभास तो है लेकिन सर नहीं जानते की अब हम दोनों दरअसल हम दोनों नहीं रहे बस उनके आगे नाटक कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि शिल्पकला वेदिका में पंकज उदास की ग़ज़ल का शो है जिसकी दो पासेस उनके पास हैं। मुझे याद है, पिछले साल वहाँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया वालों ने हलीम एंड बिरयानी प्रतियोगिता रखी थी। क्या बिरयानी थी! वॉव! वैसी बिरयानी मैंने कहीं नहीं खाई। कहीं नहीं मतलब कहीं नहीं। और इस बार, अरे इस बार तो ग़ज़ल। मज़ा आ जाएगा। सर ने मुझे पासेस दे दिए और कहा कि मैं श्वेता को भी बता दूं क्योंकि श्वेता छुट्टी पर है और वो उससे बात नहीं कर पा रहे। मैं पासेस लेकर बाहर तो निकल आई मगर जानती थी कि हम दोनों जानेवाले तो हैं नहीं। लेकिन सारा दिन मैं बीते दिनों की यादों में डूबी रही। बिरयानी प्रतियोगिता या रामोजी फ़िल्म सिटी की सैर, मोज़्मज़ाई मार्केट की आइसक्रीम या एक्सहिबिशन ग्राउंड के मेले; ऐसा लगता था कि सब जगह हमारे ठहाके गूँज रहे हैं।
अगले दिन श्वेता ऑफिस आई। मैंने सोचा हम दोनों नहीं जा सकते मगर वो दोनों तो जा ही सकते हैं। वैसे भी शर्मा सर ने ये पासेस हम दोनों के लिए दिए हैं तो उसे जाकर बताना तो पड़ेगा ही।
“हाई”
“ओ हाई”
“सरमा सर ने ये दो पासेस…..”
“हाँ सर ने सुबह-सुबह ही बताया”
“तो…..मैं तो जा नहीं रही…..तुम रखो दोनों पास।”
“मुझे जाना तो है……मगर मैं दो पासेस का क्या करुँगी”
“तुम और अवस्थी चले जाना”
“अवस्थी? कौन अवस्थी?”
“अभिषेक अवस्थी”
“उसका तो तीन महीने पहले ट्रान्सफर हो गया”
“कहाँ?”
“बेंगलोर”
“फिर तो तुम भी बेंगलोर ट्रान्सफर के लिए ट्राई कर रही होगी”
“पागल हो क्या….मैं क्यों बेंगलोर ट्रान्सफर ट्राई करुंगी….वैसे भी उसका ट्रान्सफर नहीं भी हुआ होता, तो भी उसके साथ ग़ज़ल देखने कौन जाए। ग़ज़ल कम उसकी हिदायतें ज्यादा सुनती।”
“हिदायतें?”
“हां…..ऐसे मत करो…वैसे मत करो…..यहाँ मत जाओ….वहां मत जाओ….ऐसे बैठो….ऐसे मत हंसो….उफ्फ्फ”
मुझसे और खड़ा नहीं रहा गया और मैं बगल से कुर्सी खींचकर श्वेता के एकदम करीब बैठ गई।
“मुझे लगा तुम उसे पसंद करती हो”
श्वेता ने शब्दों को चबा-चबा कर कहा
“हम्म…कोशिश की…..मगर….उसके साथ जहां भी गई वो मज़ा नहीं आया….”
अब वो मेरी आँखों में आँखें डालकर कह रही थी।
“….कि जो तुम्हारे साथ आया करता था।”
मैंने चमकती आँखों से उसे देखा
“अरे पागल……तो पहले क्यों नहीं कहा”
“कैसे कहती….हम बात ही नहीं करते थे….उस लेमन ट्री होटल में जाने हमारा क्या खो गया। हम बदल गए।”
“तो आज शाम हम शिल्पकला वेदिका जा रहे हैं। तू बस तैयार रहना। मैं अपनी प्लेज़र लेकर तेरे घर पहुंच जाउंगी।”
“डन”
शाम की सारी चकाचौन्ध हमारे ही चेहरे पर बिखरी हुई थी। सबसे आगे की तीसरी रो में जाकर हम बैठ गए।
श्वेता ने कहा “वो देख। बाईं तरफ ऊपर। वो लड़का तुझे कैसे घूर रहा है।”
मैंने पीछे मुड़कर देखा सचमुच एक लड़का रह-रहकर मुझे ही देख रहा था। काफी अकड़ कर एक पैर दूसरे घुटने पर लटका कर बैठा था जिससे उसके मिल्ट्री शूज बराबर नज़र आ रहे थे। ध्यान से बाल देखे तो वो भी एकदम छोटे-छोटे मिल्ट्री कट।
“अरे नहीं बाबा! ये तो आर्मी वाला लगता है। ये तो और ज्यादा हिदायतें देगा।”
यह कहकर हम दोनों ने खूब ज़ोर से ठहाका लगाया। बगल में खड़े एक हट्टे-कट्टे वॉलेंटीर ने खीझते हुए कहा “मैडम शोर न मचाएं। शो शुरू होने वाला है।”
हम दोनों सीधे होकर बैठ गए। मगर ज्यादा देर कहाँ। मैंने श्वेता के कान में फुसफुसाया “रणबीर कपूर की नई मूवी आई है” श्वेता ने उछलते हुए कहा “डिट्टो! मैं भी यही सोच रही थी।” हमने फिर ठहाका लगाया। इस बार उस वॉलेंटीर ने दांत पीसते हुए कहा “मैडम प्लीज़।” इस बार हमने ज़ोर से हाँ में सर हिलाते हुए कहा “ओके ओके सॉरी सॉरी।”
अब हमारे ठहाके खी-खी-खी-खी में तब्दील हो गए और तभी खत्म हुए जब शो खत्म हुआ।
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मजेदार यादें !
धन्यवाद सर जी
प्रिय सखी नीतू जी, हमें तो आपके ठहाके बहुत समय तक सुनाई देंगे, मुझे भी ऐसी ही एक हम दोनों की याद आ गई. ग़ज़ब की भाषा-शैली और अद्भुत प्रस्तुति.
प्रिय सखी नीतू जी, हमें तो आपके ठहाके बहुत समय तक सुनाई देंगे, मुझे भी ऐसी ही एक हम दोनों की याद आ गई. ग़ज़ब की भाषा-शैली और अद्भुत प्रस्तुति.
धन्यवाद जी।
सुन्दर संस्मरण आदरणीया!!
सुन्दर संस्मरण आदरणीया!!
धन्यवाद