सामाजिक

ईश्वर का पांचवां पत्र

प्रिय आत्मन्,
हर बार तुम्हें पत्र लिखकर सोचता हूँ कि ये अंतिम पत्र है फिर दोबारा तुम्हें पत्र नहीं लिखूँगा। लेकिन पिता का हृदय है कि मानता ही नहीं। एक बार फिर तुम्हारे सन्मुख हूँ एक नए पत्र के साथ।

तुम्हें पता है कि तुम इस सृष्टि में सबसे अनोखे और सर्वश्रेष्ठ क्यों हो? क्योंकि मैंने तुम्हें संवेदनशील बनाया। तुममें भावनाएं डाली। तुम अनुभव कर सकते हो सुख-दुख, प्रेम-घृणा, वीरता-भय, आनंद-क्रोध, हंसी-आँसू इत्यादि। मैंने चाहा था कि तुम सकारात्मक भावनाएँ संग्रहित करो और नकारात्मक भावनाएँ बाहर निकाल दो। इसलिए मैंने ऐसी व्यवस्था रखी कि दुख किसी को बताने भर से कम होने लगेगा। घृणा के बारे में चर्चा करोगे तो घृणा रूपांतरित होने लगेगी। भय के बारे में तुम बात करोगे तो भय भाग जाएगा। क्रोध प्रकट करते ही क्षीण होने लगेगा और आँसू बहा देने से मन हल्का हो जाएगा।

लेकिन तुमने इसका बिल्कुल उल्टा ही कर दिया। तुमने अपने सुख को, प्रेम को, वीरता को, आनंद को, हंसी को बढ़ा-चढ़ा कर बताया और दिखावे में ही खर्च कर दिया। अगर तुम प्रेम मन में संग्रहित करते तो कृष्ण हो सकते थे, वीरता मन में रखते तो महावीर हो सकते थे, आनंद मन में रखते तो बुद्ध हो सकते थे। पर तुमने दुख को, घृणा को, भय को, क्रोध को मन में संग्रहित कर लिया। और इस बात को भूल गए कि अंततः तुम वही हो जाते हो जो तुम्हारा मन तुम्हें बनाता है। तुमने हीरे तो खर्च कर दिए और कचरा मन की तिजोरी में भर लिया।

प्रिय पुत्र, तुमने बचपन से देखा होगा कि तुम्हारी माँ प्रतिदिन घर में झाड़ू लगाती थी या लगवाती थी। उद्देश्य यही था कि यदि रोज कचरा साफ ना किया गया तो घर में कचरे का ढेर लग जाएगा और बदबू आने लगेगी। तुमने अपना घर तो साफ कर लिया लेकिन अपने मन को एक बार भी नहीं बुहारा। परिणामस्वरूप तुम्हारे मन में जन्म जन्मांतर का कचरा जमा होता गया। अब अन्य लोगों को तुमसे अहंकार की, क्रोध की, घृणा की दुर्गंध आती है तो आश्चर्य क्या? अब भी समय है तुम क्षमा की, करूणा की, दया की झाड़ू से यदि मन को बुहार लो तो सारा कचरा साफ हो जाएगा और फिर तुम्हारे व्यक्तित्व में सुगंध ही सुगंध शेष रहेगी क्योंकि सुगंध तुम्हारा स्वभाव है। तुम ये कर सकते हो बस थोड़े से प्रयास की आवश्यकता है। मुझे हमेशा से तुममें आस्था रही है और तुम ऐसा करोगे ये मेरा विश्वास है।
लिखना तो बहुत कुछ था परंतु पत्र अब लंबा हो चला है तो शेष फिर कभी।

तुम्हारा और केवल तुम्हारा :-
ईश्वर

सूचना :- ये पत्र मेरी अंतःस्फुरणा है। लिपिबद्ध करते हुए मेरी अल्पबुद्धि और सीमित भाषाज्ञान के कारण त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं। उपरोक्त विचारों से आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है। अगर कोई भी बात किसी व्यक्ति, समुदाय या धर्म विशेष को गलत या बुरी लगी हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

— भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]

2 thoughts on “ईश्वर का पांचवां पत्र

  • लीला तिवानी

    प्रिय भरत भाई जी, प्रेरणादायक पत्र के लिए आभार.

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