क्या आप मेरी मदद करेंगे?
आज़ाद भारत की उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है वैसे-वैसे वह पिछड़ता जा रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि इतना पिछड़ा तो वह आज़ादी के पहले भी नहीं रहा होगा। आप कहोगे शरद, पगला गए हो। यहाँ हमारे वैज्ञानिक मंगल तक अपने नाम के झंडे गाड़ आए! हमारे नौजवान विदेशों में देश का नाम रोशन कर रहे हैं!! संसार ने योग को अपना लिया!!! देश में लोकतंत्र फलफूल रहा है!!! और आप हैं कि देश को पिछड़ा घोषित करने पर उतारु हैं। लानत हैं आपकी बुद्धि पर।
दरअसल आज़ादी के पहले पिछड़ापन एक सामाजिक बीमारी थी लेकिन आज़ादी के बाद वह मानसिक बीमारी हो गई। सामाजिक और शारीरिक बीमारियों का इलाज संभव है, मानसिक बीमारी अधिक पेचीदा होती है। आज का युग कम्प्यूटर युग है। कम्प्यूटर में वायरस घुस जाए तो उसे एंटी वायरस से निकाला जाता है। लेकिन पिछडेपन के वायरस का एंटी वायरस अब तक नहीं बना या कोई बनाना ही नहीं चाहता। हाँ, पिछड़ने का वायरस कोई निर्माता दशकों पूर्व बना गया था जिसका लाभ आज के कुछ चालाक, पढ़े-लिखे और समझदार ज़रूर ले रहे हैं। आज पिछड़ापन सामाजिक बीमारी नहीं, मानसिक बीमारी हो गई है। मानसिक बीमारी का अतिरेक हो जाए तो वही पागलपन कहलाती है।
आप तो नाहक बुरा मान रहे हैं, भाई! भारत विकसित लोगों का पिछड़ा देश है। देश की आज़ादी के बाद सबसे अधिक तेज गति में इस देश में पिछड़ी जातियों का विकास हुआ है। ऐसा कोई वर्ष व्यतीत नहीं होता, जब दो-चार जातियाँ पिछड़ी जमात में शामिल नहीं होती! मज़े की बात तो यह है कि वे धर्म भी पिछड़ी जातियों में शान से शामिल हो रहे हैं जिनमें वर्ण व्यवस्था और वर्ग व्यवस्था जैसे शब्दों का समावेश ही नहीं था। बल्कि लोगों ने इन्हें अपनाया ही इसलिए कि वर्ण व्यवस्था और वर्ग व्यवस्था जैसी अमानवीय गंदगी से तथाकथित धर्म कोषों दूर थे। लेकिन आज़ाद भारत में बेचारे ये भी जातिवाद ग्रसित हो गए और पिछड़ गए। तभी तो मैं कह रहा हूँ कि आज़ाद भारत की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही है, इस देश में पिछड़ों की संख्या का विकास होता रहा है।
अब देखिए ना यहाँ कोई जातिगत आधार पर पिछड़ा है तो कोई शारीरिक रूप से। कोई पढ़ा लिखा नहीं है तो कोई भुखमरी की हालत में सांसे ले रहा है। किसी के पास पद है ना जाति। तो परेशान है कि वह अपने को किस तरह से पिछड़ा घोषित करवाए। ऐसा व्यक्ति यहाँ मानसिक रूप से पिछड़ जाता है। यानि इस देश के संविधान में पिछड़ने के लिए हर तरह की व्यवस्था है। बस एक शर्त है। आपके भीतर पिछड़ने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए। फिर किसके बाप में दम है जो आपको विकसित कह सके। आज हमारे देश में पिछड़ा होना सम्मान का सूचक है। बिना पिछड़े इस देश में अब आपकी उन्नति और विकास असंभव है।
हमारे अनेक मित्र हैं। बेचारे बहुत पिछड़े हैं। इतने पिछड़े कि पिछड़ापन भी उनकी मानसिकता के आगे घुटने टेक देता है। पिछड़ेपन को शर्म आती है साहब उनके सामने आने से। उनके पास आलीशान बंगले हैं। गाँँवों में अकूत अचल संपत्ति है। उनकी संताने देश और विदेशों में ऊँची शिक्षा प्राप्त कर रही हंै। परिवार में जितने लोग हैं सब सम्मानित और प्रतिष्ठित सरकारी पदों पर आसीन हैं। उनके घरों की महिलाएँ आधुनिका बनकर न सिर्फ घूमती-फिरती हैं बल्कि कुछेक तो मोटा वेतन भी पाती हैं। इन महाशयों के नाम के आगे शिक्षा की इतनी बड़ी-बड़ी पदवियाँ हैं कि माता सरस्वती तक चकरा जाएँ। पर अफसोस कि ये पिछड़े हैं। उनसे पूछो कि इतना सब होने के बाद भी आप कैसे पिछड़े हैं भाई? तो जवाब मिलता है- हमारे बाप-दादा पिछडे़ थे ना इसलिए हम पिछड़े हैं।
मज़े की बात तो यह है कि ये आधुनिकता और प्रगति का डिंडोरा पीटने वाले पिछड़ने मामले में अपने बाप-दादाओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। ये लोग पुरानी परंपराओं पर थूकने का दावा करते हैं करते हैं पर इस पिछड़ने की परंपरा से उबरने के बाद भी उसका लेबल निकालकर फेकने को तैयार नहीं। वास्तव में ये लोग पिछड़ने का कोई अवसर नहीं गँवाना नहीं चाहते। इन लोगों ने तो ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि दस पुश्तों के बाद इनकी औलादें भी अगर पैदा होगी तो वह पिछड़ी ही रहेगी- हर स्तर पर। भई जिसकी मानसिकता ही पिछड़ी हो उसे कौन उठा सकता है!!!
मैं भी स्वयं को पिछले कुछ दिनों से पिछड़ेपन की बीमारी के मच्छर से कटवाना चाह रहा हूँ। कई बार अपने को ‘पिछड़ा’ घोषित करवाने की नाकाम कोशिश कर चुका हूँ, पर अससफलता सदा की भाँति मेरी आगे-आगे चलती है। और क्या करुँ? मेरे भीतर एक कीड़ा है जो समय-समय पर मुझे काटकर मेरे जमीर को जगाता रहता है। वह कभी मरता ही नहीं कमबख्त। सोचा स्वयं का जातिगत आधार पर पिछड़ा सिद्ध करने का प्रमाण पत्र बनवा लूँ, तो पता चला कि मेरी जाति को यह सुविधा प्राप्त नहीं है!
शैक्षणिक रूप से स्वयं का पिछड़ा कह नहीं सकता क्योंकि विद्यार्थी जीवन में एक नहीं दो-दो बार स्वर्णपदक प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए ले चुका हूँ। भगवान की दया से इतना पढ़-लिख गया हूँ कि देश की आनेवाली पीढ़ी को पढ़ा रहा हूँ!! ऊपर से सरकार इस सेवा के लिए इतना वेतन दे देती है कि न मैं भूखा रहता हूँ, ना ही कुटुंब और ना ही साधू भूखा जा पााता है। इसलिए आर्थिक स्तर पर भी पिछड़ा नहीं हो सकता!!! गरीबी की रेखा के कई दिनों तक मेरे या मेरे परिवार के ऊपर से गुजरने की संभावना नहीं है!!!!
अभी पचासवाँ बसंत नहीं देखा इसलिए स्वयं को जवान ही मानता हूँ। स्वस्थ हूँ, इसलिए शारीरिक रूप से भी पिछड़ा नहीं रहा!!!! मंचों पर कविता पढ़ता हूँ। आप मेरा यह व्यंग्य पढ़ रहे हैं इसलिए मानसिक स्तर पर भी कंगला नहीं रहा।लोग मुझे मानसिक स्तर से ऊर्जावान और समृद्ध मानते हैं। अपने को मानसिक रूप से भी पिछड़ा नहीं कह सकता। पर मुझे पिछड़ों की जमात में शामिल होना है। जब सब हो रहे हैं तो मैं क्यों इस सुविधा का लाभ मैं न लूँ? आखिर मैं भी इस लोकतंत्र का अंग हूँ!!! क्या आप मेरी मदद करेंगे?
— शरद सुनेरी
शानदार लेखन
बधाई
पिछड़ी हुई मानसिकता पर बहुत अच्छा व्यंग्य !