गीत- हमको अपने पर फैलाने हैं
बाधायें तो खड़ी राह में सीना ताने हैं.
नीलगगन तक हमको अपने पर फैलाने हैं.
गोमुख से गंगासागर तक
जाती है गंगा.
कितनी दूरी है पर मंज़िल
पाती है गंगा.
सच पूछो तो दूरी-वूरी सिर्फ बहाने हैं.
नीलगगन तरह हमको अपने पर फैलाने हैं.
सूरज की किरणें रोज़ाना
धरती पर आतीं.
चंदा की किरणें रातों को
रौशन कर जातीं.
ऐसे खुशियों के पल जग को हमें लुटाने हैं.
नीलगगन तक हमको अपने पर फैलाने हैं.
बड़े-बुजुर्ग बताते हैं यह
उनका अनुभव है-
“सच्चे हों संकल्प अगर तो
सब कुछ संभव है.”
“हमको भी पानी है मंज़िल”-मन में ठाने हैं.
नीलगगन तक हमको अपने पर फैलाने हैं.
डाॅ. कमलेश द्विवेदी
कानपुर
मो.09415474674
बहुत सुंदर गीत !
बहुत सुंदर गीत !