लेख

छुट्टा

 आजकल दुकान पर जाने के लिए जेब में केवल रुपयों से काम नहीं चलेगा। अगर आपके पास पांच-पांच सौ और हज़ार-हजार के हजारों नोट हों या क्रेडिट कार्ड में ढेर सा बैलेंस हो तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आप एक कप चाय खरीद पाएंगे।

मंहगाई के इस दौर में भी फुटकर यानि चेंज ने अपनी अहमियत नहीं खोई है। हो सकता है कि आपकी जेब में नोटों की गड्डी हो फिर भी चायवाला आप को चाय देने से इंकार कर दे। अक्सर कोई बस घंटो एक बस स्टाप पर खड़ी रह जाती है क्योंकि किसी यात्री और कंडक्टर के बीच फुटकर राशि का हिसाब निपटाने के लिए कश्मकश चल रही होती है। यात्री अपने दो रुपए छोड़ना नहीं चाहता और कंडक्टर अपना अस्त-व्यस्त नोटों से भरा थैला दिखाकर और सिक्के कहीं अंदर छुपाकर अपनी बेबसी जताकर दो रुपए की कमाई करने के चक्कर में है। वहीं एक सब्ज़ीवाला और महिला कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ रहे हैं क्योंकि महिला के पास देने के लिए छुट्टा नहीं है और सब्जीवाला अपने प्याज के पूरे पैसे लेकर ही छोड़ेगा। वहीं कभी-कभी इस बात पर भी घंटो बहस होती है कि कोई गृहणी सब्ज़ी तभी खरीदेगी जब सब्जीवाला दो रुपए कम करेगा और सब्जीवाला दाम कम नहीं करेगा क्योंकि सब्जी वह बेच रहा है, जैसे चाहे बेचे, भला वह गृहणी कौन होती है उसे बताने वाली कि किस दर पर सब्जी बेचनी है।

सिग्नलों पर उन वाहन सवारों की हालत भी देखने लायक होती है जिनसे भिखारी अपने पिछले जन्म का कर्ज चुकवाने पर उतारु होता है और पिछले जन्म के उस कर्ज़दार के पास छुट्टे पैसे न हो। वैसे एक आश्चर्यजनक बात यह भी है कि मंहगाई के इस दौर में भी एक वर्ग छुट्टे पर ही अपनी जीविका के लिए निर्भर है। हम तो कभी नोट निकालकर उन्हें देंगे नहीं और उन्हें उन सिक्कों से ही संतोष करना पड़ेगा। सोचा न था कि मंहगाई इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि उन्हें छुट्टे निकालकर देने में हमें इतनी तक़लीफ होगी कि यह झूठ बोलना पड़ेगा – “मेरे पास छुट्टे नहीं है, आगे जाओ।”

कई बार समाचार-पत्रों में भी ऐसी अजीबो-गरीब खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं कि दो या पाँच रुपए के लिए दोस्तों में खून-खराबा हो गया है। जान की क़ीमत दो रुपए से भी कम हो गई है, इसे हास्यापद कहूँ या शोचनीय।

शुक्र है कि कीमतों के इतने बढ़ने के बावजूद छुट्टे का चलन बंद नहीं हुआ वरना हमें अगर भिखारी को बड़ी कीमत वाले नोट निकालकर देने पड़ते तो बड़ा दुख होता। और ये छुट्टे अक्सर वहां भी काम आते हैं जब बच्चे पैसों की ज़िद करते हैं। ऐसे में हम छुट्टे देकर अपना पीछा छुड़ाने में कामयाब हो जाते हैं।

ईश्वर ने हमें कुछ दिया हो या न दिया हो हम तो उसकी आरती में छुट्टे डालकर काम चला लेते हैं। ईदी भी छुट्टे से निपटा लेते हैं।

वैसे छोटे-छोटे बच्चे छुट्टे पाकर बड़े खुश होते हैं। उनके लिए छुट्टे का महत्व शायद नोटों की गड्डियों से कहीं बढ़कर होता है क्योंकि ये खनकते हैं और भारी होते हैं जिससे वो अपने अस्तित्व का एहसास दिलाने में बखूबी कामयाब होते हैं। वहीं पाँच-पाँच सौ के नोटों से न तो उनकी छोटी-छोटी जेबें भारी होती हैं और न ही उनके खनकने की कोई आवाज़ होती है।

देखा जाए तो जीवन के सुख-दुख भी इन्हीं छुट्टे पैसों की तरह होते हैं। छोटी-छोटी खुशियों में हम हंसते और मज़ा लेते हैं खनकते छुट्टों की तरह। लेकिन बड़ी-बड़ी उपलब्धियों पर हम बड़ी शान से एक मुस्कुराहट दिखाकर अपनी खुशी पर पर्दा डाल देते हैं जैसे हरे नोट की कड़क। वहीं छोटे-छोटे दु:ख-हानि पर हम झुंझला जाते हैं और मन भारी कर लेते हैं, छुट्टों के भारीपन की तरह। वहीं बड़े-बड़े व्याघातों में हम अपनी समझ-बूझ का भरपूर प्रयोग करते हुए अपने असीम धैर्य का प्रदर्शन करते हैं और बड़ी-बड़ी हानियों को प्रारब्ध समझकर उसे अपना लेते हैं।

हमारे जीवन में छोटे-छोटे सुख-दुख का भी उतना ही महत्व है जितना बड़े का है। कल्पना कीजिए की हमें अब केवल बड़े सुख या बड़े दुख ही मिलेंगे तो जीवन कितना दूभर हो जाएगा। हर खुशखबरी अथवा दुख की खबर पर दिल को ऐसे झटके लगेंगे कि प्राण ही निकल आए। ऐसे में छोटे-छोटे सुख-दुख हमारी सेहत बनाए रखने में कितना काम आते हैं, उनका महत्व भी ठीक वैसे ही है जैसे भारी कीमत वाले नोटों के रहते हुए कम कीमत के छुट्टॆ का है।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

5 thoughts on “छुट्टा

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक लेख !

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक लेख !

    • नीतू सिंह

      धन्यवाद

  • नीतू सिंह

    धन्यवाद

  • लीला तिवानी

    सच है, जीवन के सुख-दुख भी इन्हीं छुट्टे पैसों की तरह होते हैं. अति सुंदर व्याख्या.

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