भलमनसाहत (विश्व महिला दिवस पर विशेष)
भलमनसाहत
मई की एक दोपहर और लखनऊ की उमस | भारी भीड़ के चलते वह बस में जैसे तैसे चढ़ तो गई परन्तु कहीं जगह न मिलने की वजह से बच्चे को गोदी में लिए चुपचाप एक सीट के सहारे खड़ी हो गयी | अत्यधिक गहमागहमी और गर्मी से बच्चे का बुरा हाल था | वो उसे चुप कराने में तल्लीन थी कि,
“बहन जी आप यहाँ बैठ जाइये “ कहते हुए पास की सीट से एक व्यक्ति उठकर खड़ा हो गया |
“नहीं भाईसाहब आप बैठिये, मैं यहीं ठीक हूँ” विनम्रतापूर्वक निवेदन को अस्वीकार करते हुए उसने कहा |
“अरे ! आपके पास बच्चा है, आपको खड़े रहने में तकलीफ होगी, बैठ जाइये ना |” उन सज्जन के विशेष आग्रह पर वह सकुचाकर बैठ गई | सच ही तो था बच्चे को लेकर खड़े रहने में उसे वास्तव में बहुत परेशानी हो रही थी | वह बच्चे को पुचकारने लगी और पानी पिलाकर उसे चुप कराया | कुछ ही देर में बच्चा मस्त हो खेलने लगा |
अब उसकी निगाहें उस भले व्यक्ति को ढूँढने लगीं, जिसने इस भीड़ भरी बस में अपनी सीट देकर उसकी मदद की थी | दो तीन सीट आगे ही वो भला व्यक्ति खड़ा हो गया था | अचानक उसके हाथ में होती हुई हरकत पर उसकी निगाह गयी | ध्यान से देखा तो पाया कि जिस जगह वो खड़े थे, उससे लगी सीट पर बैठी पन्द्रह-सोलह साल की एक लड़की अपने आप में ही सिमटी जा रही थी | वे महाशय भीड़ का फायदा उठाकर बार बार उसकी बगल में हाथ लगाते और बार बार वो बच्ची कसमसाकर रह जाती |
मामला समझते उसे देर ना लगी | उसकी तीखी निगाहों से उन सज्जन की करतूत व् उस बच्ची की बेबसी छुप ना सकी | वह थोड़ी देर के लिए यह भी भूल गयी कि उसकी गोद में छोटा बच्चा है |
अपने बच्चे को सँभालते हुए तुरंत उठी और पलक झपकते ही उन सज्जन के पास पहुंचकर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उनके गाल पर रसीद किया “वाह, भाईसाहब अच्छी भलमनसाहत दिखाई आपने | बहन जी बोलकर अपनी सीट इसीलिए मेरे हवाले की थी कि खुद इस मासूम के साथ छेड़खानी कर सकें | अरे…कुछ तो शर्म कीजिये, आपकी बेटी की उमर की है ये बच्ची, और आप ! छि…धिक्कार है आपकी सज्जनता पर |” कहकर वह उन पर बरस पड़ी |
अचानक पड़े इस थप्पड़ से अवाक् रह गये सज्जन के मुंह से कोई बोल न फूटा | लोगों की आक्रोशित नजरों से बचते बचाते अपने गाल को सहलाते हुए वे भीड़ में ही आगे बढ़ गए व् अगला स्टॉप आते ही बस से उतर गये |
वात्सल्य से उसने बच्ची के सर पर हाथ फेरा, जो अपनी डबडबाई आँखों से मौन की भाषा में उसे धन्यवाद कह रही थी |
पूनम पाठक “पलक” इंदौर (म.प्र.)
प्रिय सखी पूनम जी, साहस का साहस के साथ चित्रण अत्यंत अनुपम बन पड़ा है. बहुत बढ़िया, शुक्रिया.
धन्यवाद लीला तिवानी जी ….खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए ….उपरोक्त कहानी मेरी माता जी के जीवन की सत्य घटना पर आधारित है. वो महिला मेरी माता जी और उनकी गोद में मेरे भैया थे. मेरी माता जी आज ७५ वर्ष की हैं . पर आज भी अदम्य साहस है उनमे…जो कई बार चकित कर देता है मुझे. एक बार पुन: हार्दिक धन्यवाद …..
बहुत अच्छी कहानी !
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना.
जी महोदय सहमत हूँ आपसे, बहुत धन्यवाद
अच्छी लघु कथा ,ऐसे भी भलमानस होते ही हैं ,जिन से हुशिआर रहना चाहिए .
जी गुरमेल सिंह जी , सही कहा…बहुत आभार आपका
सही चित्रण उम्दा लेखन
हार्दिक धन्यवाद विभा रानी जी…उत्साहवर्धन के लिए