कविता

स्त्री

स्त्री (विश्व महिला दिवस विशेष)

स्त्री हूँ मैं हाँ स्त्री,
स्त्री ही मुझको रहने दो।
पावन पुण्य धरा पर मुझको
प्रेम की कोंपल बोने दो।
खतरे में अस्तित्व है मेरा
यूँ विलुप्त ना होने दो।
दांव मुझे रख एक बार फिर
चीरहरण मत होने दो।
दुष्टों के संहार की ख़ातिर
कालरात्रि सम होने दो।
कर बैठूँ विद्रोह स्वयं से
इतनी तपिश न होने दो।
बहुत त्याग बलिदान किये,
अब और मुझे ना रोने दो।
पौरुष अहम् की तुष्टि पर
सम्मान मेरा ना खोने दो।
जकड़ के मर्यादा की बेड़ी
दम मेरा ना घुटने दो।
उर भीतर बसने वाले
शीतल झरने को बहने दो
खुद धिक्कार उठे मन तेरा
यूँ कलुषित ना होने दो।
अंधियारे उर के अक्षय का
अमिट उजाला होने दो।
बन संगिनी चलूँ संग तेरे
कदमताल इक होने दो।
नर और नारी की परिभाषा
समदर्शी सी होने दो।

पूनम पाठक”पलक”

पूनम पाठक

मैं पूनम पाठक एक हाउस वाइफ अपने पति व् दो बेटियों के साथ इंदौर में रहती हूँ | मेरा जन्मस्थान लखनऊ है , परन्तु शिक्षा दीक्षा यही इंदौर में हुई है | देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी से मैंने " मास्टर ऑफ़ कॉमर्स " ( स्नातकोत्तर ) की डिग्री प्राप्त की है | इंदौर में ही एकाउंट्स ऑफिसर के जॉब में थी | परन्तु शादी के बाद बच्चों को उचित परवरिश व् सही मार्गदर्शन देने के लिए जॉब छोड़ दी थी| अब जबकि बच्चे कुछ बड़े हो गए हैं तो अपने पुराने शौक लेखन से फिर दोस्ती कर ली है | मैं कविता , कहानी , हास्य व्यंग्य आदि विधाओं में लिखती हूँ |

4 thoughts on “स्त्री

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, पूनम जी !

    • पूनम पाठक

      बहुत बहुत आभार विजय सर

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बहुत बढ़िया रचना

    • पूनम पाठक

      बहुत शुक्रिया विभा रानी जी

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