“बसंत जगा रहा है”
“बसंत जगा रहा है”
शायद वो बसंत है, जो पेड़ों को जगा रहा है
मंजरी आम्र का है, कुच महुआ सहला रहा है
बौर महक रहें हैं बेर के, सुंगंध बिखराए हुए
रंभा लचक रही है, बहार कदली फुला रहा है।।
किनारे पोखर के सेमर, रंग पानी दिखा रहा है
कपास होनहार रुईया को, खूब चमका रहा है
पीत वदन सरसों, कचनार फूल गुलमोहर का
बिखरें हैं बेसुध हो, खलिहान गुल खिला रहा है।।
चंपा रातरानी मोगरा, मालती संग इतरा रहा है
कोमली कोयल को कूकना, कौआ सिखा रहा है
गौरैया के घोसले में, चूं चूं करता गिर गिरगिट
बुलबुल का पिंछ रंग, कोई और ही दिखा रहा है।।
झाड़ी और झुरमुट को, नेवला निहारता रोज है
फसल चराने सियार, नीलगाय को बुला रहा है
बेदर्द मौसम की मार से, अरहर की बाढ़ रुकी
तीसी चना मनमटरी को, देख जौ कतरा रहा है।।
किसान की आस चैत, आकाश गुरगुरा रहा है
गदराया हुआ गेंहू, अपनी बाली झूका रहा है
नियति के बसंत संग, होली खेलन जाऊं कस
पश्चिम में पूर्वी की लय, जिया तमतमा रहा है।।
जा-रे बसंत ऋतुराज, तुझे कोई और बुला रहा है
नाहक सूखे बागों से, ऋतु रिश्ता निभा रहा है
गुलदस्तों में खिलते है, फूल यहाँ प्लास्टिक के
जा उन बागों में बसंता, जँह भौरा गुनगुना रहा है।।
महातम मिश्र