समाजवादी प्रदेश के चार साल में शिक्षा का बुरा हाल
एक ओर जहां प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रदेश के बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं तथा प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं वहीं अफसरशाही के कारण प्रदेश की शिक्षा का बुरा हाल है। मुख्यमंत्री व प्रशासन के सभी प्रयासों को भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी, शिक्षक, कर्मचारी, नेता व दलालों का गठजोंड़ शिक्षा को दीमक की तरह चाट रहें हैं। आज राज्य व केंद्र सरकार की ओर से चलायी जा रही सभी योजनायें फेल हो रही हैं।
विगत दिनों माननीय उच्च न्यायालय ने अपने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण फैसले में बेसिक शिक्षा में व्यापक सुधार और बदलाव लाने के लिये मंत्रियों और अफसरों को अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आदेश सुनाया था। लेकिन जो हालात हैं उसके हिसाब से तो न्यायालय का यह आदेश रददी की टोकरी में जा चुका है। प्रदेश सरकार के एक भी मंत्री, विधायक और एक भी अफसर ने अभी तक अपने बच्चों को बेसिक स्कूलों में पढ़ाने के लिए पहल नहीं की है। अब खबर है कि प्रदेश सरकार हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जा रही है।
प्रदेश में बेसिक शिक्षा की हालत बेहद खस्ता है । इसका हाल किसी से छिपा नहीं है। इन स्कूलों की हालत को देखते हुए उच्च न्यायालय ने मंत्रियों और अधिकारियों को भी इन्हीं स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का आदेश सुनाया था। प्रदेश में अधिकतर प्राथमिक स्कूलों की हालत बहुत दयनीय है। ऐसे में बच्चों की शिक्षा पर भी असर पड़ रहा है। आज की तारीख में प्रदेश के स्कूलों में कोई भी शिक्षक समय पर नहीं आता , मिड-डे-मील जैसी तमाम योजनायें भ्रष्टाचार और कमीशनखेारी के चक्कर में भयंकर डूबी हैं।
इसी कारण विगत 18 अगस्त 15 को हाईकोर्ट ने प्राथमिक शिक्षा में सुधार करने के लिए सरकारी अधिकारियो, मंत्रियों और कर्मचारियों को अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी स्कूलों में कराने का आदेश दिया था। छह माह बीत जाने के बाद भी सरकार हाईकोर्ट के फैसले पर अमल नहीं कर पायी है। वास्तविकता यह है कि सरकार यह व्यवस्था लागू करने के पक्ष में नहीं दिख रही हैं। जबकि अदालत का यह फैसला व्यापक जनहित में था। जिससे सरकारी स्कूलों की व्यवस्थाओं में सुधार किया जा सके और समाज में बराबरी का वातावरण पैदा किया जा सके। बेहतर स्कूलों और शिक्षण से ही हम अच्छे नागरिक बन सकते हैं। लेकिन प्रदेश के नेताओं को यह बात अच्छी नहीं लगी होगी और वे अपने आप को असहज महसूस कर रहे होंगे। राज्य के किसी मंत्री और अफसर को यह बात अच्छी नहीं लग रही जबकि यदि यह आदेश लागू किया जाता तो इससे समाज में एक नया वातावरण उत्पन्न किया जा सकता था।
इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर करने के यही संकेत हैं कि सरकार, मंत्रियों, विधायको और अफसरों की मंशा कतई नहीं हैं के वे अपने बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में पढ़ायें। यदि यह बच्चे सरकरी स्कूलों में पढ़ने के लिये जाते तो इन सकूलों की बेहतरी के लिये और अधिक प्रयास किये जाते। अफसर और मंत्री इन स्कूलों से अपनी कन्नी काट रहे हैं। पत्रकारों की टीमें समय- समय पर इन स्कूलों का दौरा करती रहती हैं लेकिन भारी भरकम बजट और सुविधायें देने के बावजूद इन सरकारी स्कूलों का बुरा हाल है।
अभी हाल ही में सीएजी कई रिपोर्टें बता रही हैं कि प्रदेश में शिक्षा के नाम पर किस प्रकार से धन का बेतहाशा दुरूपयोग हुआ है।।फिर वह चाहे शिक्षण संस्थानों के भवन निर्माण में करोड़ों फंस जाने क मामला हो या फिर मिड-डे-मील में स्वास्थ्य व स्वच्छता की अनदेषी कामामला हो। हर जगह हेराफेरी का मामला सामने आ रहा है और समाजवादी सरकार अपने चार साल पूरे होने का जश्न पूरे धूमधाम से मना रही है। सीएजी की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि उच्च, बेसिक, माध्यमिक और व्यावसायिक शिक्षा से जुड़े शिक्षण संस्थानों के भवन निर्माण कार्य में वित्तिय अनियमितताओं, लालफीताशाही और काम की निगरानी में विफलता के कारण करोड़ो रूपये फंस गये हैं। यह हाल पूरे प्रदेशका है।
लखनऊ विश्वविद्यालय में नये परिसर में पर्यावरण विज्ञान और जैव प्रोैद्योगिकी, कंप्यूटर विज्ञान आदि के कोर्स संचालित करने के लिये विज्ञान संकाय भवन निर्माण की खातिर अक्टूबर 2007 में 8.92 करोड़ रूपये स्वीकृत किये गये थे भवन का निर्माण कार्य सितंबर 2010 तक पूरा होना था लेकिन वह नवंबर 2015 तक विज्ञान संकाय का भवन नहीं बन सका और 8.92 करोड़ रूपये खर्च होने के बाद भी। सीएजी की रिपोर्ट खुलासा कर रही है कि मिड- डे – मील के बावजूद वर्ष 2010- 11 में छात्रों का नामाकंन 1.59 करोड़ से घटकर वष 14.15 में केवल 1.34 करोड़ रह गया। बच्चों के पोषक तत्वों की कमी के अध्ययन के लिये बेसलाइन कार्य नहीं किया गया। सर्वोच्च न्यायालय का आदैश है कि बच्चों को 200 दिन भोजन अवश्य दिया जाये लेकिन केवल 2010-15 के मध्य औसतन 102 दिन ही मध्यान्ह भोजन उपलब्ध कराया गया।62 प्रतिशत स्कूलों में स्वास्थ्य परीक्षण के दस्तावेज तक नहीं थे। 43 प्रतिशत स्कूलों में वजन नापने की मशीन नहीं मिली। 64 प्रतिशत स्कूलों में बाॅडीमास इंडेक्स नही था। 32 प्रतिशत स्कूलों में स्वास्थ्य परीक्षण नहीं कराया गया। धन होने के बाद भी 21 प्रतिशत स्कूलों में रसोई सह भंडारगृह नहीं थे। 42 प्रतिशत स्कूलों के पास भोजन पकाने के लिये रसोई गैस कनेक्शन तक नहीं है।
इतना धन आवंटन होने के बावजूद 34 प्रतिशत में जलनिकासी और 21 प्रतिशत में हवा और 16 प्रतिशत में रोशनी का इंतजाम नही हो सका है। आखिर समाजवादी विकास में जिस प्रकार से धन की कमी का रोना रोया जा रहा है लेकिन सीएजी की रिपोर्ट जो कह रही है उसका जवाब भी तो सामजवादी सरकार को ही तो देना होगा ,आखिर इस धन की बर्बादी की जिम्मेदारी कौन लेगा?
— मृत्युंजय दीक्षित