सीख लेना
घूरा को घूरो और सीख लो
तब का ज़माना ये नहीं था कि द्वारे द्वारे सीटी बजे और घर से कूड़ेदान बाहर रखा जाये ….. तब हर घर के थोड़ी दुरी पर बड़ा गढ़ा खोद कर रखा जाता था और उसमें घर से निकलने वाले सारे कचरे , गाय बैल के गोबर , अनाज के डंठल , खर पतवार भरा जाता था ….. तब जमीन को बंजर बनाने वाली प्लास्टिक का भी पैदाइश नहीं हुई थी न खढे को मैं हमेशा घूरा करती थी
मेरी माँ कहती थीं सुनअ घूरा के दिनवा भी बारह बरिस में फिर जाला मेरे समझ में ये आया कि सड़ गल कर खाद बन जाता होगा घूरा खेतों में फसल को दिया जाता होगा खेत सोना उगलती होगी
आत्म हत्या करने वालों को करीब से देखी हूँ निश्चित उनकी माँ मेरी माँ जैसी ज्ञानी नहीं थी अगर होती तो 12 साल तक धैर्य रखने की सीख जरूर दी होती 12 साल में तो एक युग बदल जाता है तो क्या हम अपनी स्थिति नहीं बदल सकते
प्रिय सखी विभा जी, 12 साल में ही क्यों, समझ आ जाए तो 12 पल में ही हम अपनी स्थिति बदल सकते हैं. बहुत बढ़िया सीख.
बहन जी , आप ने बात एक अरब रुपय की, की है . किओंकि मैंने अपने बचपन में खेतों में काम किया था . तब ना तो कोई आत्महत्या ही होती थी और ना ही लोग इतने दुखी थे .जैसा आप ने लिखा वैसे ही कूड़े करकट के ढेर जगह जगह होते थे और इन ढेरों में घर का सारा कूड़ा और पशुओं का गोबर फैंका जाता था .मैं खुद फावड़े से टोकरी भर भर के छकड़े के ऊपर फैंकता था और मैं अपने दादा जी के साथ खेतों में इस को फैंकने जाया करता था .तब फसलें भी बहुत अच्छी होती थीं और बड़ी बात यह कि उस समय जो अंग्रेजी खादें यूरिया बगैरा है ,होता ही नहीं था और ना ही पैस्तेसाइड होते थे और खेतों में फसलों को खाने वाले कीड़े मकौड़े भी होते नहीं थे ,अनाज १००% ऑर्गेनिक होता था .आज किसान भी बिजनैस मैंन बन गए हैं ,कुइक्क और ज़िआदा प्रौफिट लेने की होड़ में अपना सत्यानाश करवा रहे हैं ,कौमेंट बड़ा ना हो जाए ,यह मुसीबत हमारी अपने सहेड़ी हुई है .