कविता

कविता : चालीस पार की औरत

थोड़ी खुद्दार, थोड़ी खुदमुख्तार है,
ये चालीस पार की औरत,
लेकिन उसकी खुदमुख्तारी में भी,
होता है जिम्मेदारी का एहसास,
अपने परिवार के प्रति प्यार,
उस पति के लिए
जो थोड़े उलझ गए हैं व्यापार में,
सेहत के मामले में लापरवाह,
थके हारे घर आते हैं,
खाना खाते हैं और सो जाते हैं,
दूसरे दिन जल्दी उठकर,
काम पर जाने के लिए,
और फिर कहते हैं,
तुम में अब वो बात नहीं रही,
उन बच्चों के लिए जो समझते हैं
कि अब हम बड़े हो गए हैं,
जिनको अब पिज्जा, बर्गर
ज्यादा भाते हैं,
जो हर बात पर कहते हैं,
माँ तुझे कुछ नहीं पता,
तुम पुराने जमाने की हो,
लेकिन कोई नहीं जानता,
कि अगर ये घर घर है,
तो उसी चालीस साल की
औरत की वजह से,
जो बिना किसी शिकायत के,
सालों से उनकी जिंदगियों को,
संभाले हुए है,
ना इनाम का लालच, ना बदले में कोई चाह,
तनहाई में दो आँसू बहाती,
सबके सामने मुस्कुराती,
रब का रूप है,
ममता का स्वरूप है,
प्यार की मूरत है,
बड़ी खूबसूरत है,
ये चालीस पार की औरत,
ये चालीस पार की औरत……..

— भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]

One thought on “कविता : चालीस पार की औरत

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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