कविता : चालीस पार की औरत
थोड़ी खुद्दार, थोड़ी खुदमुख्तार है,
ये चालीस पार की औरत,
लेकिन उसकी खुदमुख्तारी में भी,
होता है जिम्मेदारी का एहसास,
अपने परिवार के प्रति प्यार,
उस पति के लिए
जो थोड़े उलझ गए हैं व्यापार में,
सेहत के मामले में लापरवाह,
थके हारे घर आते हैं,
खाना खाते हैं और सो जाते हैं,
दूसरे दिन जल्दी उठकर,
काम पर जाने के लिए,
और फिर कहते हैं,
तुम में अब वो बात नहीं रही,
उन बच्चों के लिए जो समझते हैं
कि अब हम बड़े हो गए हैं,
जिनको अब पिज्जा, बर्गर
ज्यादा भाते हैं,
जो हर बात पर कहते हैं,
माँ तुझे कुछ नहीं पता,
तुम पुराने जमाने की हो,
लेकिन कोई नहीं जानता,
कि अगर ये घर घर है,
तो उसी चालीस साल की
औरत की वजह से,
जो बिना किसी शिकायत के,
सालों से उनकी जिंदगियों को,
संभाले हुए है,
ना इनाम का लालच, ना बदले में कोई चाह,
तनहाई में दो आँसू बहाती,
सबके सामने मुस्कुराती,
रब का रूप है,
ममता का स्वरूप है,
प्यार की मूरत है,
बड़ी खूबसूरत है,
ये चालीस पार की औरत,
ये चालीस पार की औरत……..
— भरत मल्होत्रा
अच्छी कविता !