वो साड़ी
कबीरा बाज़ार में खड़े होकर ही सबकी खैर क्यूँ मांगता था? क्या इसलिए नहीं क्योंकि बाज़ार में जब हम जैसे शॉपिंग के दीवाने पहुंच जाते हैं तो हमारी खैर नहीं। दिवालिया होने तक घर नहीं जाते हैं। शायद यही कारण है कि ज्ञानमार्गी शाखा का प्रवर्तन करने कबीरा बाज़ार पहुँच गया।
आज श्रेया के साथ कुछ चद्दरें खरीदने मार्केट गई थी। नहीं, नहीं पुरानी चद्दरें फटी नहीं हैं और ऐसा भी नहीं है कि पलंग के स्टोरेज में रखीं नई चद्दरों का स्टॉक खत्म हो गया है। अरे नहीं भई, न तो कोई रिश्तेदार आ रहे हैं और न हि किसी को तोहफे में देना है। हम तो आज मार्केट इसलिए जा रहीं हैं क्योंकि नीला आंटी बता रहीं थी कि उन्होंने एक नई दुकान पता की है जो होलसेल की दर पर चद्दरें बेचता है और दुकान की बगल में ही कारखाना है जहाँ कारीगर तैयार करते हुए दीख पड़ेंगे। इस नई खोजी गई दुकान पर खरीदारी किए बगैर भला आत्मा को संतुष्टि कैसे मिलती।
लो पहुंच गए चद्दरों की दुकान पर। सिंग्ल बेडशीट, डबल बेडशीट देखते-देखते देखा कि उसके पास बढ़ियां पर्दे और गमछे भी हैं। तो केवल देखना क्या था, अपने बनाए बजट से बढ़कर मैंने वे भी खरीद ही डाले।
इतना तो है कि अब महीने का मेरा बजट गड़बड़ा गया है। इसलिए दुकानदार के हाथ में सारी पूंजी धरते हुए अब मैं प्रण करती हूँ कि इस महीने अब कुछ नहीं खरीदना है, बस।
बोरों से भी भारी अपनी-अपनी थैलियां लिए हम दुकान के बाहर आए। मेरी आंखों में तो बजट का मोतियाबिंद हो गया था इसलिए अब मैं देखकर भी किसी दुकान को नहीं देख रही थी। मगर यह मोतियाबिंद केवल मुझे ही हुआ था, श्रेया को तो नहीं। तो उसने सामने पड़े साड़ी के चमचमाते शोरूम को देख लिया। शो रूम देखा या न देखा, उसमें लटक रहा ‘50% ऑफ’ और ‘सेल सेल सेल’ का बोर्ड तो मछली की उस आँख की तरह देख लिया जिसे कभी अर्जुन ने तेल के कड़ाहे में देखा था।
फिर क्या था? बुलेट ट्रेन और किसी सेल की दिवानी के रास्ते में जो आता है कुचला जाता है। और मुझे कुचले जाने का कोई मन नहीं था, इसलिए बाड तोड़ती नदी के साथ जिस तरह पेड़-पौधे बहे चले जाते हैं, मैं भी श्रेया के साथ बहती चली गई, बहती चली गई जहाँ साडियों की सेल लगी थी।
मैं किसी बाल-ब्रह्मचारी की तरह सुंदर-सुंदर साड़ियों से अपनी नज़र ऐसे बचाती चल रही थी जैसे वे स्वर्ग की अपसराएं हों और मेरा प्रण की परीक्षा लेने पर उदृत हों। पहले तो अपने आप को समझाती रही कि साड़ियां अच्छी नहीं हैं। ज़रूर डिफेक्टिव होंगी नहीं तो आधे दाम पर क्यूं बेचते। किसी दूसरी दुकान पर बढ़ियां रेट पर मिल जाएंगी। मगर जब साड़ियों की सुंदर होने की प्रमाणिकता आंखों की चमक ने देनी शुरू की तो कैसे कहती कि साड़ियां सुंदर नहीं है। फिर एकाध को उलट-पलट के देखा तो डिफेक्टिव भी नहीं थी।
एक ग्राहक को पूरी साड़ी खोलकर यहाँ से वहाँ तक दिखाई जा रही थी। मेरी पारखी नज़र ने उसे बड़ी बारीकी से जाँचा। कोई डिफेक्ट नहीं। और रेट तो यहीं सस्ता होगा क्योंकि सेल तो केवल यहीं लगी है। और कहीं लगी होती तो कॉलोनी में ब्रेकिंग न्यूज ज़रूर बनती।
अब खुद को समझाना पड़ रहा था कि बजट नहीं है, बजट नहीं है, बजट नहीं है, घर का बजट बिगड़ जाएगा, तेरे पास पैसे भी नहीं है, अभी तनख़्वाह आने में देर है। और फिर श्रेया को साड़ी लेने का हक है। तुझे नहीं है। उसके हसबैंड का प्रमोशन हुआ है। सैलरी बढ़ी है तो घर का बजट बढ़ा है। उस बढे हुए बजट में उसकी एक-दो साड़ियां तो निकल ही सकती हैं। पर मेरा क्या? मेरे पति ने प्रमोशन न पाकर मुझे इस अधिकार से वंचित कर रखा है। और इस महीने की सारी तनख़्वाह उड़ाकर मैंने अपनी स्थिति और दयनीय बना ली है।
अपने आप को यह सब समझा-बुझाकर मैं श्रेया के साथ साड़ियां देखने लगी। जिस तरफ श्रेया उंगली कर देती दुकानदार उस ड़िज़ाइन की एक से एक साड़ियां श्रेया के आगे लहराता जाता। पर मेरे विचलित होने का सवाल नहीं था। इसके दो कारण थे। एक तो मैने अपनेआप को समझा लिया था कि श्रेया श्रेष्ठ है और साड़ियाँ खरीदने की अधिकारिणी है जबकि मैं नहीं हूँ। दूसरा श्रेया की पसंद और मेरी पसंद में ज़मीन-आसमान का अंतर है। जो रंग-डिज़ाइन-फैशन मुझे पसंद होता है, उसे नापसंद और जो उसे पसंद होता है वो मुझे…।
दुकानदार ने हमारे सामने काउंटर पर ढेर लगा दिए थे और श्रेया साड़ियां चुनने में मशगूल थी। मगर मेरा ध्यान दुकान में लगी घड़ी पर; घड़ी भी नहीं; उसकी टिक-टिक करते कांटों पर था। समय हो रहा था कि घर चलकर खाना बनाया जाए। ये दफ़्तर से लौटते ही होंगे। मुझे पता तो था कि बाज़ार में देर हो जाएगी। इसलिए रसोईघर में कुछ तैयारी तो कर के आई थी। मगर अब भी अगर न निकले तो कुछ न पका पाउंगी।
श्रेया ने मेरा ध्यान मांगा –“ये कैसी लगेगी मुझ पर?”
मैंने भी उन कांटों से आंचले की तरह अपना पूरा ध्यान वापस खींच लिया और सब का सब श्रेया को सौंपते हुए कहा – “अच्छी है। मगर बार्डर बहुत चौड़ा है। तुम पर छोटा बार्डर खूब खिलता है। छोटे बार्डर वाली लो।“
अपना यह एक्सपर्ट कमेंट देते समय मुझे ध्यान नहीं आया। उफ मैंने क्या कर दिया। चुपचाप रहती। नहीं रह सकती थी तो यही लेने के लिए कह देती तो अब तक हम दुकान से निकल रहे होते। मगर नहीं अपना गुरू ज्ञान यहीं झाड़ना था। लो, अब भुगतो और ढूँढों पतले बार्डर वाली साड़ी। मैं श्रेया के साथ पतले बार्डर वाली साड़ी ढूँढने में लग गई।
दुकानदार ने भी फुर्ती से डेढ़ दर्जन साड़ियों के पैकेट सामने पटक दिए। इसी में दूसरी साड़ियों के बीच दबी-छुपी-झांकती हुई एक आसमानी नीले रंग की साड़ी मुझे ताक रही थी। रह-रहकर लुभा रही थी, जैसे आँख मारकर छुप जा रही हो।
मन में कई बार हूक उठी कि दुकानदार को कहकर वह साड़ी निकलवाऊँ और देखूँ। साड़ी का रंग ही इतना खूबसूरत था कि मैं अगर उसे खुलवाकर देख लेती तो बिना लिए रह नहीं पाती। अपने आप को समझा-बुझाकर मैंने उस छुई-मुई सी शर्माती हुई साड़ी से नज़र फेर ली।
मेरी दृष्टि पुन: कांटों पर टिकी। ये कांटें अब आँखों में चुभने लगे थे, गड़ने लगे थे। उधर श्रेया का मन किसी एक साड़ी पर टिक ही नहीं रहा था। उसने लगभग आधी दुकान खुलवाकर देख ली।
अब मैं श्रेया से अनुनय-विनय करने लगी।
“अब चल। घर चलते हैं। खाना भी बनाना है।“
“अब इतनी मेहनत कर ली है तो थोड़ा और सब्र कर लो।“
जब श्रेया नहीं पसीजी तो मैं थक हार के यहां-वहां देखने लगी। घड़ी के कांटे अब तलवार बन चुके थे। वहाँ देखने का अब कोई औचित्य नहीं था क्योंकि अब जल्दी जाकर भी खाना नहीं बना पाउँगी। वह घर पहुंच गए होंगे।
मैंने उचटकर श्रेया के लिए साड़ियां देखना भी बंद कर दिया। शो रूम के शीशों में मैं अब खुद को निहार रही थी। जिस तरह अलाऊद्दीन खिलजी शीशे में ही देखकर दूर बैठी पदमिनी पर मोहित हो गया था, मैं भी उस शीशे में एक साड़ी को देखकर मोहित हो गई। पलटकर उस साड़ी को देखा तो वह पिछली वाली नीली साड़ी की तरह मुझे छुप-छुपकर नहीं लुभा रही थी। बल्कि बाहों की तरह अपना खूबसूरत पल्लू पसारे मेरे आलिंगन का आह्वाहन कर रही थी।
मैं किसी तांत्रिक के वशीभूत आत्मा की तरह यंत्रचालित सी उस काउंटर की तरफ चल दी जिस काउंटर के ऊपर वह साड़ी हैंगर में लटकाई हुई थी। वहाँ खड़े शख्स से मैंने वह साड़ी उतरवाई और उसने अलट-पलट कर, लहरा-लहरा कर उस साड़ी को मेरी आँखों में बस जाने दिया।
“क्या रेट होगा इसका?”
“मैडम सात हज़ार की साड़ी है….”
“डिस्काउंट?”
“जी मैडम, डिस्काउंट के बाद साढ़े तीन हज़ार।“
मैंने थोड़ा और कम कराने के इरादे से कहा “”क्या दाम लगा रहे हो भाई साहब! आपके रेगुलर कस्टमर हैं।“
“पहचानता हूँ मैडम। आप लोगों से तो दुकान चलती है मेरी। पहले ही दाम कम करके बता रहा हूँ। स्टॉक निकालना है इसलिए घाटे में बेच रहा हूँ। नहीं तो यह पंद्रह की साड़ी थी।“
मैं निरुत्तर। साड़ी के मोह के आगे अपना बटुआ टटोलने लगी। केवल सात सौ रूपए थे। मैं जानती थी कि मेरे पास कुल सात सौ रुपए ही होंगे, फिर भी पर्स की सारी ज़िप चेक कर के देख ली कि कहीं कोई चमत्कार हो जाए।
और चमत्कार हुआ भी। चमत्कार यह हुआ कि पहली बार बहुत पसंद आने पर भी मुझे कोई कपड़ा छोड़कर जाना पड़ रहा है, बिना लिए, बिना खरीदे।
“कितने दिन यह सेल रहेगी?”
“सेल तो मैडम कल तक रहेगी बाकि ये साड़ी कल तक रहेगी कि नहीं, पता नहीं। इसके सारे शेड्स गर्म केक की तरह बिक गए। यही बची थी शायद आपके नसीम में हो। ले लीजिए।“
इससे पहले की एक साड़ी की वजह से मेरा भिखारीपन बाहर आ जाता, उस नीली साड़ी से मेरी लाज बचाने श्रेया श्रीकृष्ण की तरह पहुंची।
“चल! अब देर नहीं हो रही तुझे”
“ हां! हां चलो!……रहने दो भैया। वैसे भी मेरे पास बहुत नीली साड़ियां हैं।“
मैं और श्रेया उस एसी शोरूम से बाहर धूल-धक्कड़ भरी सड़क पर आ गए। सामने देखा तो एक नीले रंग की कार जा रही थी। श्रेया ने हाथ हिलाकर एक ऑटो रुकवाया। ऑटो में बैठी तो सड़क के उसपार एक गुब्बारे वाला रंग-रंग के गुब्बारे लेकर खड़ा था। उसके गुब्बारों में तीन नीले गुब्बारे थे जो आपस में मिलकर त्रिकोण बना रहे थे।
उस हॉस्पिटल का बोर्ड भी नीला था और उस बड़े बंगले की छत पर नीले झूले लगाए थे। हमारे आगे जिस लड़की ने हाथ हिलाकर दूसरा ऑटो रुकवाया उसका नेल पेंट नीला था। अरे! श्रेया की सैंडल भी नीली थी।
मैं उदास-उदास घर पहुँची। राहत इतनी ही मिल पाई कि वे देर से आए तो मैं खाना बना सकी। खाना तो क्या खाती, बिना खाए ही लेटने गई तो बिस्तर पर बिछाया चद्दर भी नीला था। उफ!!!
शाम को पता चला कि देवर की शादी फिक्स हो गई है। अब तो मैं खुद को वह नीली साड़ी पहने बारात में नाचती देख रही थी।
ख्यालों की बारात निकल गई। दिन ढल गया। सुबह भी हो गई। मगर चैन नहीं पड़ रहा था। सुबह से एक ही ख्याल दिमाग में मधुमक्खी की छत्ते की तरह भिनभिना रहा था। आज सेल का आखिरी दिन है, आज सेल खत्म हो जाएगी, आज सेल बंद हो जाएगी। पता नहीं वह साड़ी होगी या बिक गई होगी।
आज मेरे घर पर गप्पे लड़ाने की बारी थी। श्रेया और मैंने रोज़ की तरह सुबह का काम खत्म कर फुरसत कर ली। अब तो श्रेया की बातों में भी मन नहीं लग रहा। वह जाने कहां-कहां की बातें कर रही थी। मैंने तो उस पर ध्यान नहीं दिया मगर उसने ज़रूर ध्यान दिया कि मैं गुमसुम और खोई हुई हूँ।
“क्या हुआ? कल रात झगड़ा-वगड़ा हुआ क्या?”
“नहीं तो।“
“फिर चेहरा क्यूँ उतरा हुआ है।“
“नहीं ऐसा तो कुछ भी नहीं है।“
“कुछ तो है। और जब तक बताएगी नहीं, मैं मानूंगी नहीं।“
मुझे भी मालूम था कि वो मानेगी ही नहीं। सो सारी व्यथा कह सुनाई।
एक नशेड़ी का नशा दूसरा नशेड़ी ही समझ सकता है। श्रेया ने मेरा दर्द समझा और इलाज के लिए उधार दिया।
पानी देने से जैसे मुरझाया पौधा फिर खिल उठता है, मैं भी उधार पाकर लहलहा उठी। श्रेया के जाते ही मैंने चटपट कपड़े बदले और घर से निकल गई।
मोड़ तक पहुँची भी नहीं थी कि चप्पल उखड़ गई। दुविधा में थी कि वापस लौटूँ और चप्पल बदलूँ या….। पर साड़ी के मोह ने खींच लिया और चप्पल घसीटते हुए मोड़ तक पहुंची। साड़ी का मोह भारी पड़ा। मोड़ तक पहुँची ही थी कि अचानक से बेमौसम बरसात ने मुझे दुश्मन देश के सैनिकों की तरह चारों ओर से घेर लिया। तेज़ बारिश के छींटे उछल-उछलकर मेरी सफेद सलवार का हाल बुरा कर रहे थे जैसे कीचड़ से ही सलवार पर चिकनकारी करना चाह रहे हों।
मेर पास छाता भी नहीं था। सोचा लौट पडूँ। कपड़े ज्यादा गंदे हो गए तो इन पर लगे दाग़ न निकलेंगे। मगर सोचा कि पलभर में ऑटो मिल जाएगा तो बच जाऊँगी।
मगर वह पलभर भी पूरे बीस मिनट लंबा निकला। हर ऑटो वाला अपना ऑटो ऐसे भगा ले जा रहा था जैसे बारिश न हो बल्कि शहर में अचानक कर्फ्यू लगा दिया गया हो। मैं हाथ हिला-हिलाकर रह जा रही थी और ऑटो वाले ऐसे नज़रअंदाज़ कर रहे थे जैसे कोई घमंडी फिल्म अपने उस फैन को देखे बिना ही निकल जाता है स्टार ऑटोग्राफ बुक हाथ में लिए उसके आगे-पीछे हाथ हिला रहे हों।
जब बारिश की बूँदों की ही तरह मेरे चेहरे से लाचारी टपकने लगी तब जाकर एक ऑटो वाला ऑटोग्राफ देने को तैयार हुआ।
भीगती-भागती, टूटी चप्पल लिए, लंगड़ाती और लगभग-लगभग गिरती-पड़ती सी जब मैं उस दुकान में घुसी तो सीधे मेरी नज़र वहाँ गई जहाँ कल वह साड़ी लटकी थी।
अगर दिल की मरीज़ होती तो अब तक धराशायी हो गई होती क्योंकि वह साड़ी वहाँ से नदारद थी। हैंगर में कोई और ही साड़ी अपने पल्लू की छटा बिखेरे हुए थी। यह साड़ी कितनी ही सुंदर क्यों न हो मेरे लिए नहीं बनी थी। मैं तो उसी नीली साड़ी के मायाजाल में फंसी हुई थी।
भौंचक्की सी जब उस काउंटर पर पहुंची तो देखा दुकानदार मेरी हालत पर मुस्कुरा रहा था। मेरी फटी आंखें और उसी हैंगर की ओर उठी उंगली को देखकर वह जवाब देने के लिए तत्पर था। इसीलिए जब मैंने बस “वो साड़ी …” कहा तो उसने बात पूरी भी नहीं करने दी और एक ओर पड़ी साड़ियों के ढेर में झुक गया। थोड़ी देर बाद उठा तो उसी नीली साड़ी का एक छोर पकड़े हुए उठा।
“ये लीजिए मैडम” कहते हुए उसने साड़ी को उस ढेर से ऐसे अलग किया जैसे दु:शासन ने दौपदी को।
“आपके लिए बच गई थी। वरना अभी-अभी एक ग्राहक ढेरों साड़ियाँ देख कर गया। इस साड़ी को भी पसंद किया। मगर जाते-जाते छांट गया। पैक करा दूँ?”
मेरी आँखों की चमक और चेहरे की मुस्कान उसके सवाल का उतर थी।
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बढ़िया.
धन्यवाद