सिसकियाँ बाकी हैं…
जैसे दिन चढता है मन में अँधेरा बढ़ता है
तपता सूरज हो जैसे मन ये मेरा जलता है
बहूत ही घना अँधेरा है दिन के उजालों में
बस सिसकियाँ ही बाकी हैं मेरे ख्यालों में.
आँखों में नमी और धूँधली सी तस्वीरें हैं
बेबस मुस्कुराने को इन पाँवों में जंजीरें हैं
क्या बेबसी है घुँट -घुँट कर जीने मरने की
इससे अच्छा फेंक देते काँटों के जालों में
बस सिसकियाँ हीं बाकी हैं मेरे ख्यालों में.
इस हाल में जीने की ऐसी क्या मजबूरी है
जिन्दा रहने को क्या साँसें लेना जरूरी है
कुछ धड़कनें ही बाकी हैं जाने किस वास्ते
जिन्दगी जूझ रही है ऐसे उलझे सवालों में
बस सिसकियाँ हीं बाकी हैं मेरे ख्यालों में.
खून रिसते हैं फिर भी मुझे चलते रहना है
लाखों पिड़ा हो मुझे उफ् तक न कहना है
इस दुनिया के लोग कैसे गजब निराले हैं
कमियाँ निकालते हैं मेरे पाँवों के छालों में
बस सिसकियाँ ही बाकी हैं मेरे ख्यालों में.
— विशाल नारायण