कविता : मर्यादा
क्यों मर्यादा की… चादर ओढ़े,
दिन-रात यूँ ही… घुट -2 के जियूँ !
क्यों अोड़ … आडम्बर की चादर,
जहर जुदाई… दिन – रात पियूँ !!
अभिलाषाएँ… हैं बल खातीं,
चाहत भरी मंजिल… मुझे बुलाती !
मिले है जीवन… इक बार सभी को,
क्यों न इसे… मैं खुल के जियूँ !!
फिर मर्यादा की… क्यों जपूँ मैं माला
ये जिंदगी अपनी… मर -2 के जियूँ !
— अंजु गुप्ता
हर बात के लिए बगावत भी कोई हल नहीं है ,मरियादा में रह कर भी बहुत कुछ हो सकता है . आप मेरी कहानी का एपिसोड 121 देख सकते हैं .
आडम्बर की चादर बेशक मत ओढ़िए, पर मर्यादा की चादर को तो बरकरार रहने दीजिए. Learning & Development का यही पहला और प्रमुख नियम है.
Aap bilkul sahi keh rhi hain. Pr maan mai kuch or ho & hm log pravchan kuch or dete rhe, is baat ka koi tuk nhi.