वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा
ओ३म्
पण्डित भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से वर्तमान पीढ़ी के मित्रों को परिचत कराने का विचार आया जिसका परिणाम आज का हमारा यह संक्षिप्त विवरण व लेख है। पं. भगवद्दत्त जी आर्यसमाज में वेद एवं वैदिक विषयों पर आधुनिक विज्ञान की सहायता से शोध के प्रवर्तक थे। आपका जन्म वर्तमान पंजाब के अमृतसर में पिता लाला चन्दनलाल एवं माता श्रीमती हरदेवी जी के यहां 27 अक्तूबर सन् 1893 को हुआ था। आपकी इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा विज्ञान विषयों सहित हुई जिसके बाद आपने सन् 1913 में बी.ए. किया। बी.ए. करने के बाद वेदाध्ययन को आपने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आपने एम.ए. नहीं किया इसके पीछे जो कारण था उसका उल्लेख प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने पं. भगवद्दत्त जी पर अपनी प्रशंसित पुस्तक में किया है। वह लिखते हैं कि पण्डित जी ने मुम्बई के श्री ओंकारनाथ जी को उनके पूछने पर बताया था कि वह बहुत सरलता से एम.ए. कर सकते हैं परन्तु एम.ए. की परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित पश्चिमी भाषा विज्ञान व अन्य–अन्य ग्रन्थों की मिथ्या बातें लिखनी पड़ती है। मैं उन पुस्तकों की झूठी बातें लिख व बोल नहीं सकता। इस कारण उन्होंने एम.ए. नहीं किया जबकि आपने अनेक युवकों को एम.ए. व पी–एच.डी. कराया था। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आपके गुरु थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द से योगाभ्यास की विधि सीखी थी। पण्डित जी ने बी.ए. की परीक्षा डी.ए.वी. कालेज से पास की और इसके बात इसी कालेज को अपनी अवैतनिक सेवायें प्रदान कीं। सन् 1921 में महात्मा हंसराज ने आपको डी.ए.वी. कालेज लाहौर के अनुसंधान विभाग का अध्यक्ष बनाया। डी.ए.वी. कालेज के अपने कार्यकाल में आपने लगभग सात हजार हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों वा उनकी पाण्डुलिपियों का वहां संग्रह किया। 1 जून, सन् 1934 को पण्डित जी ने डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मुक्ति प्राप्त की और स्वतन्त्र रुप से वैदिक साहित्य के अध्ययन व अनुसंधान में लग गये। डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मात्र 41 वर्ष की आयु में त्याग कर देने से अनुमान होता है कि वह डी.ए.वी. में कार्य से सन्तुष्ट नहीं थे। यह भी हो सकता है कि तत्कालीन अंग्रेज शासकों व उनके कुछ भक्तों के कारण उन्हें वहां कार्य करने में असुविधा रही हो। हर कार्य का कारण हुआ करता है। व्यक्तिगत स्तर पर कार्य करने पर अध्ययन व अनुसंधान के लिए साधन जुटाना कठिन होता है तथापि पण्डित जी ने इस कठिन मार्ग को चुना और आर्यसमाज व वैदिक साहित्य की प्रशंसनीय सेवा की।
सन् 1947 में देश का विभाजन होने पर आप दिल्ली आ गये और यहां पंजाबी बाग में अपना निवास बनवाकर रहने लगे। यहां रहते हुए आप वैदिक विषयों के ग्रन्थों के लेखन, अध्ययन व अनुसंधान के कार्य में संलग्न रहे। पण्डित जी महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा, अजमेर के सदस्य भी रहे। सभा में आपकी नियुक्ति 4 मार्च, 1923 को हुई थी। समय-समय पर आपने परोपकारिणी सभा को महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के भव्य व शुद्ध प्रकाशन के विषय में मुद्रण, सम्पादन व प्रकाशन विषयक अपने उपयोगी सुझाव दिए। पण्डित भगवद्दत्त इस सभा की विद्वत समिति के सदस्य भी रहे। 22 नवम्बर, सन् 1968 को 75 वर्ष की आयु में दिल्ली में आपका निधन हुआ।
पण्डित जी ने तीन खण्डों में ‘वैदिक वांग्मय का इतिहास’ का लेखन किया जो आपकी अपने विषय की अपूर्व शोध कृति है। ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में वेद की शाखाओं का अनुसंधान पूर्ण इतिहास है। इसका प्रथम संस्करण अप्रैल, 1934 में लाहौर से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों का विवेचन हुआ है। इस द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण का प्रकाशन डी.ए.वी. कालेज लाहौर के शोध विभाग की ओर सन् 1927 में हुआ था। तीसरे भाग में प्राचीन वेदभाष्यकारों का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसका प्रकाशन सन् 1931 में हुआ था। इस ग्रन्थ के तीनों भागों का द्वितीय संस्करण पं. भगवद्दत्त जी के सुपुत्र पं. सत्यश्रवा ने पण्डित जी की मृत्यु के बाद सन् 1974, 1976 व 1978 में स्वसम्पादन में किया। पण्डित भगवद्दत्त जी के ऋग्वेद पर व्याख्यान ग्रन्थ सन् 1920 में, इसके बाद ऋग्मन्त्र व्याख्या, तत्पश्चात वेद विद्या निदर्शन (सन् 1959) तथा निरुक्त भाषाभाष्य (सन् 1964) का प्रकाशन हुआ। अथर्ववेदीया पंचपटलिका (सन् 1920), अथर्ववेदीया माण्डूकी शिक्षा (सन् 1978), बाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या तथा अरण्य काण्डों का सम्पादन, चारायणीय शाखा मंत्रार्षाध्याय, आथर्वण ज्योतिष, धनुर्वेद का इतिहास, आचार्य बृहस्पति के राजनीति सूत्रों की भूमिका आपके द्वारा सम्पादित कुछ अन्य ग्रन्थ हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने अंग्रेजी में दो लघु महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जिनमें प्रथम है Extra Ordinary Scientific Knowledge in Vedic Works जो कि अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्यापरिषद् के दिल्ली अधिवेशन में पठित शोधपूर्ण निबन्ध है। दूसरा लघु ग्रन्थ Western Indologists : A study in Motives अर्थात् पश्चिमी भारत-तत्वविदों की पूर्वाग्रहपूर्ण धारणाओं का सप्रमाण खण्डन (सन् 1955) है।
पं. भगवद्दत्त जी के इतिहास व भाषाविज्ञान विषयक ग्रन्थों में प्रमुख ग्रन्थ हैं भारतीय राजनीति के मूल तत्व (सन् 1951), भारतवर्ष का इतिहास (1940), भारतवर्ष का वृहद इतिहास दो भागों में (सन् 1960), भाषा का इतिहास, भारतीय संस्कृति का इतिहास, ऋषि दयानन्द का स्वरचित (लिखित वा कथित) जन्म चरित, ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन के तीन भाग एवं सत्यार्थ प्रकाश का सुसम्पादित संस्करण सन् 1963। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के सभी ग्रन्थों का पं. भगवद्दत्त जी ने पं. सन्तराम बी.ए. के सहयोग से हिन्दी मं अनुवाद किया। इस गुरुदत्त ग्रन्थावली का हिन्दी अनुवाद का प्रथम संस्करण राजपाल एण्ड संस लाहौर से सन् 1921 में प्रकाशित हुआ था। आज भी इसी संस्रण का पुनर्मुद्रण किया जाता है। हमें इस हिन्दी अनुवाद को पढ़ने में कहीं कहीं कठिनाईयां हुईं थी। हमने इसके नये अनुवाद के लिए श्री प्रभाकरदेव आर्य व श्री भावेश मेरजा जी से प्रार्थना की थी। श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी को अंग्रेजी ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद आदि कार्यों में सेवा देने वाले श्री आर्यमुनि वानप्रस्थी जी ने गुरुदत्त ग्रन्थावली का अंग्रेजी से सुगम हिन्दी में नया अनुवाद का कार्य सम्पन्न कर दिया है। अब यह प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। हम आशा करते हैं कि न्यास के अध्यक्ष श्री प्रभाकरदेव आर्य जी इसका शीघ्र नया भव्य संस्करण प्रकाशित करायेंगे जिससे पाठकों को पढ़ने व समझने में सुगमता होगी। पं. भगवद्दत्त जी का अन्तिम ग्रन्थ Storey of Creation उनके निधन के दो मास पूर्व प्रकाशित हुआ था। हमनें इस लेख को तैयार करने में डा. भवानीलाल भारतीय जी के आर्य लेखक कोष से सामग्री ली है। इसके लिए हम इस ग्रन्थ लेखक का धन्यवाद सहित आभार व्यक्त करते हैं।
पण्डित जी के सभी ग्रन्थ उच्च कोटि के हैं जिनमें से अधिकांश अप्राप्य हैं। आर्यसमाज व आर्यजनता का यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि अनेक उपयोगी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ वर्षों पूर्व अप्राप्त हो गये थे परन्तु इनका पुनर्मुद्रण न हो सका। पुनप्रर्काशन व पुनर्मुद्रर्ण में एक प्रमुख कारण आर्यसमाज के लोगों में पुस्तक खरीदने व पढ़ने की प्रवृत्ति में अत्यधिक ह्रास है। आर्यसमाज ऐसा आन्दोलन है जो तभी सफल हो सकता है जब इसके सभी सदस्य स्वाध्यायशील हों और ऋषि ग्रन्थों सहित अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करें और एक प्रचारक के रूप में कार्य करें। ऋषि मिशन से जुड़े सभी लोगों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करना आर्य नेताओं व विद्वानों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हम अनुभव करते हैं कि आर्य नेताओं एवं विद्वानों को इस समस्या पर विचार मन्थन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की बगिया सदैव हरी भरी रहे। आर्यसमाज में अनुसंधान व शोध के प्रणेता एवं अद्भुद वैदिक विद्वान पं. भगवद्दत्त जी को हमारा सश्रद्ध स्मरण एवं श्रद्धांजलि।
–मनमोहन कुमार आर्य