ग़ज़ल
टूटती झोंपड़ी पर गिरी बिजलियाँ
शोर में गुम हुई दर्द की सिसकियाँ ।
याद इतना न मुझको किया कीजिये
आ रही हैं सुबह से मुझे हिचकियाँ ।
मोल रिश्तों का कोई नहीं रह गया
हो रही हैं कलंकित बँधी राखियाँ ।
जानवर के भी दिल में दया आ गई
आदमी नोंच के खा रहा बोटियाँ।।
कट गया सर झुकी उनकी गर्दन नहीं
माँ ने भेजा लगा करके जब रोलियाँ ।
बीच मँझधार को पार करती मगर
डूबती हैं किनारों पे ये कश्तियाँ ।
— धर्म पाण्डेय
बीच मँझधार को पार करती मगर
डूबती हैं किनारों पे ये कश्तियाँ । ………..बहुत खूब .
अति सुंदर
गज़ल