गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

टूटती झोंपड़ी पर गिरी बिजलियाँ
शोर में गुम हुई दर्द की सिसकियाँ ।

याद इतना न मुझको किया कीजिये
आ रही हैं सुबह से मुझे हिचकियाँ ।

मोल रिश्तों का कोई नहीं रह गया
हो रही हैं कलंकित बँधी राखियाँ ।

जानवर के भी दिल में दया आ गई
आदमी नोंच के खा रहा बोटियाँ।।

कट गया सर झुकी उनकी गर्दन नहीं
माँ ने भेजा लगा करके जब रोलियाँ ।

बीच मँझधार को पार करती मगर
डूबती हैं किनारों पे ये कश्तियाँ ।

— धर्म पाण्डेय

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • बीच मँझधार को पार करती मगर

    डूबती हैं किनारों पे ये कश्तियाँ । ………..बहुत खूब .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    अति सुंदर
    गज़ल

Comments are closed.