ग़ज़ल : निठल्ला रहा है
निगाहों में सबके निठल्ला रहा है
हुनर वही सभी को सिखला रहा है
बताएं क्या कैसी वो सोहबत रही
छोड़ आएं नगर तो झुठला रहा है।।
बहुत चाह होती की लौटूं गली में
मन सिकुड़ा है ऐसे घृणा ला रहा है।।
घिसती रही राह बचपन में जिनसे
मोड़ वो पुराना फिर से बुला रहा है
तमन्ना पुरानी जुड़ती जा रही अब
गुमसुदाई का दौरा कुलबुला रहा है।।
अजब दांस्ता है पुराने शहर का भी
विसरे हुए दृश्य अब दिखला रहा है।।
बन जाते हैं ठिकाने रात गुजर होती
ठहरा हुआ समय है जिला रहा है।।
शुक्रिया स्वागत भी बड़ा अजीब है
सतही तकाजा नियत जतला रहा है।।
बिना जरुरत के कैसी बंदगी मौला
मतलबी यह बादल चपला रहा है।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
वाह !
वाह !
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर जी