मुक्त काव्य : ऐसा चेहरा
बंदगी करता रहा
उमर भर का आदमी ठहरा
चलता रहा जुबां पर लगा पहरा
हिल गए ये होठ यूं ही एक दिन
जख्म दे रहा इंसान ही इंसान को गहरा॥
कैसी है सोच
आदमी का चेहरा चेहरा
हर वक्त गिराता उठाता सेहरा
बदनशीबी तो देखों आदमी के चंगुल में आदमी
अब तो नित नए आतंक दिखाता है बन मोहरा॥
— महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी
बढ़िया !
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर जी