सब उपाधियों से ऊपर
गिरधारीलाल को अपने छात्र-जीवन में एक प्रतिभाशाली छात्र माना जाता था. उसकी ईमानदारी, इंसानियत, साहस और दूसरों की सहायता की सभी जगह सराहना की जाती थी. रोज़ मंदिर में जाने वाले उसके पिताजी बनवारीलाल भी अपने लाल के इन सद्गुणों की सराहना करते नहीं थकते थे. उनकी नज़र में बस अपने सुपुत्र की एक ही कमी खटकती थी, कि वह किसी भी धर्म को नहीं मानता था. पिता के बहुत कहने पर भी उसने कभी मंदिर के दरवाज़े पर मस्तक नहीं टेका था, जब कि उनके बाकी सभी भाई-बहिन अक्सर मंदिर जाते रहते थे. पिताजी इसी बात पर उन्हें नालायक और नास्तिक की उपाधियों से भी विभूषित कर चुके थे, लेकिन वे इन सब उपाधियों से ऊपर उठ चुके थे.
बनवारीलाल के इसी तथाकथित नालायक व नास्तिक सुपुत्र की बड़े होने पर पूरे शहर में एक बड़े और ईमानदार व्यवसायी के रूप में प्रसिद्धि हो गई थी. अपने सभी भाई-बहिनों की मदद को वे हमेशा प्रस्तुत रहते थे. शहर की सभी सामजिक सरोकार की संस्थाओं को वे चंदा देते थे. उनकी पत्नि भी उनके इस नेक काम में उनको सहयोग देती थी. गृहस्थी की गाड़ी भलीभांति चल रही थी.
अचानक उनकी ज्वलंत गृहस्थी को ग्रहण लग गया. उनकी प्रिय पत्नि सौदामिनी अचानक कैंसर की नामुराद बीमारी से ग्रस्त हो गई. उसके इलाज में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई, पर यह भयानक रोग बलि लेकर ही छोड़ता है. गिरधारीलाल ने अपनी पत्नि को सम्मानपूर्वक विदा किया. सौदामिनी की इच्छानुसार उसने कोई भी धार्मिक रस्म नहीं अदा की, हां उसकी तेरहवीं वाले दिन उसने कैंसर सोसाइटी को पांच लाख रुपए अवश्य दिए, ताकि समय रहते जिन लोगों का मर्ज़ पकड़ में आ जाता है, उनके व गरीबों के इलाज में धन की कमी आड़े न आने पाए. शायद इसी से ही सौदामिनी की आत्मा को शांति मिल सके. इस बार उन्हें किसी ने नास्तिक की उपाधि से विभूषित नहीं किया, घर-बाहर उनके इस नेक कार्य की सराहना हो रही थी. अगर उन्हें किसी उपाधि से विभूषित भी किया जाता, तो उन्हें क्या फ़र्क पड़ना था, वे तो सब उपाधियों से ऊपर उठ चुके थे.
लीला बहन , कहानी इतनी अछि लगी कि तबीअत खुश हो गई किओंकी यह मेरे दोस्त रंजित राये को ही शर्धान्जली देने के बराबर है और मनमोहन जी ने मुझे ऐसी कहानी लिखने को प्रेरत किया था लेकिन मुझे कोई प्लाट सूझता नहीं था .आप ने मेरा काम आसान कर दिया . यह कहानी तो मेरे काम की है ,क्योंकि गिरधारी लाल जैसे लोगों को ही मैं धार्मिक मानता हूँ .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको कहानी बहुत अच्छी लगी. अति सार्थक व हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से शुक्रिया
नमस्ते आदरणीय बहिन जी। कहानी अच्छी है। हो सकता है कि मेरे विचार प्रिय न हों, अतः क्षमा प्रार्थी हूं। मेरे विचार से श्री गिरधारी लाल जी ने जो अच्छे कार्य व 5 लाख का दान किया वह निःसन्देह प्रशंसनीय कार्य है। परन्तु ईश्वर को न मानना कृघ्नता इसलिए है कि जिस ईश्वर ने उसे मनुष्य जन्म और शरीर, इन्द्रियां, शुभ व अशुभ कर्म करने की नाना शक्तियां, माता-पिता-परिवार व सुख के साधन दिये, उसे ही न मानना अनुचित व अविवेकपूर्ण कार्य है। हां, मन्दिर में जाकर मूर्तिपूजा करना उचित नहीं है। इसके लिए भी मेरी निजी राय में वह प्रशंसा के पात्र हैं क्यांकि कोई भी मूर्ति गुण-कम-स्वभाव में ईश्वर के समान कदापि नहीं हो सकती। विगत 147 वर्षों में हमारे पौराणिक मूर्ति पूजक भाई वेद से मूर्तिपूजा का समर्थन करने वाला एक भी प्रमाण नहीं दे सके। यह भी सत्य है कि अनेक विवेकशील लोग मूर्तिपूजा और पौराणिक कर्मकाण्ड की अयुक्तिपूर्ण बातों को देखकर ही नास्तिक हो जाते हैं। मेरा निजी विचार है कि हमारे यूरोप के वैज्ञानिक भी अपने मत की अवैज्ञानिक व अविवेकपूर्ण बातों के कारण ही ईश्वर को नहीं मानते। यदि वहां वैदिक दर्शन के अनुसार ईश्वर को तर्क व युक्ति के आधार पर माना जाता तो शायद सभी वैज्ञानिक ईश्वर को मानने वाले हो सकते थे। क्षमापूर्वक निवेदन के साथ सादर नमस्ते।
मनमोहन भाई , आप लीला बहन की कहानी से सहमत नहीं हैं क्योंकि गिरधारी लाल नास्तिक था . लेकिन मुआफ करना मैं आप के विचारों से सहमत नहीं हूँ . कारण सधाह्र्ण ही है कि क्या गिरधारी लाल लोगों को कहता फिरे कि वोह भगवान् को मानता है या नहीं ? गिरधारी लाल मंदिर जा कर माथा नहीं टेकता था और इस बात से उस के पिता जी असंतुष्ट थे और उस को नालायेक समझाते थे लेकिन इस के विपरीत वोह कई संस्थाओं को चंदा देते थे और सारे शहर में उस की इमानदारी की चर्चा थी . वोह अपने भाई बहनों की भी मदद करते थे और सब से बड़ी बात उस की धर्म पत्नी उस के विचारों से सहमत थी और उन की उन की इच्छाओं को ही मद्दे नज़र रखते हुए उस ने कोई धार्मिक रसम नहीं की लेकिन पांच लाख रुपय कैंसर रीसर्च के लिए दिया ताकि इस बीमारी का कोई इलाज मिल सके और आने वाली पीडीओं को यह दुःख झेलना न पढ़े . मेरे विचार से गिरधारी लाल सही मानों में आस्तिक था क्योंकि वोह कर रहा है ,जो भगवान् चाहता है . नास्तिक शब्द की परिभाषा बहुत गलत हो रही है .अगर गिरधारी लाल नास्तिक है तो मैं भी पूरा नास्तिक हूँ .
मनमोहन भाई , आप लीला बहन की कहानी से सहमत नहीं हैं क्योंकि गिरधारी लाल नास्तिक था . लेकिन मुआफ करना मैं आप के विचारों से सहमत नहीं हूँ . कारण सधाह्र्ण ही है कि क्या गिरधारी लाल लोगों को कहता फिरे कि वोह भगवान् को मानता है या नहीं ? गिरधारी लाल मंदिर जा कर माथा नहीं टेकता था और इस बात से उस के पिता जी असंतुष्ट थे और उस को नालायेक समझाते थे लेकिन इस के विपरीत वोह कई संस्थाओं को चंदा देते थे और सारे शहर में उस की इमानदारी की चर्चा थी . वोह अपने भाई बहनों की भी मदद करते थे और सब से बड़ी बात उस की धर्म पत्नी उस के विचारों से सहमत थी और उन की उन की इच्छाओं को ही मद्दे नज़र रखते हुए उस ने कोई धार्मिक रसम नहीं की लेकिन पांच लाख रुपय कैंसर रीसर्च के लिए दिया ताकि इस बीमारी का कोई इलाज मिल सके और आने वाली पीडीओं को यह दुःख झेलना न पढ़े . मेरे विचार से गिरधारी लाल सही मानों में आस्तिक था क्योंकि वोह कर रहा है ,जो भगवान् चाहता है . नास्तिक शब्द की परिभाषा बहुत गलत हो रही है .अगर गिरधारी लाल नास्तिक है तो मैं भी पूरा नास्तिक हूँ .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. गिरधारीलाल जीते-जागते भगवानों की सेवा-सहायता में लगे रहते थे, इसलिए हमारे विचार से वे सच्चे अर्थों में आस्तिक थे. आपका भी यही मत हमें एकदम सही लगा. यह कहानी हमारी देखी-भाली है. प्रतिक्रिया के लिए हृदय से शुक्रिया
मुझे लगता है कि मेरी भावना को समझा नहीं गया है। मैंने कथानायक श्री गिरधारी लाल जी की चैरिटी वा दान आदि की ह्रदय से प्रशंसा की है। मैंने तो यह कहा है की पिता की आज्ञा का पालन करने वाला पुत्र अच्छा होता है परन्तु उसे पिता का सम्मान और उसे जन्म देने, पालन करने, शिक्षित करने तथा उसे समाज में योग्य मनुष्य बनाने के लिए कृतज्ञता स्वरुप उसका धन्यवाद व नमन भी करना चाहिए। श्री गिरधारी लाल इस संसार को बनाने व चालने वाले व सभी प्राणियों को जन्म देने वाले ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते और उसका धन्यवाद नहीं करते थे, यह उनके लिए उचित नहीं था। यह कृतघ्नता है। उन्होंने चैरिटी का जो कार्य किया उसका मैं ह्रदय से प्रशंसक हूँ। मंदिर में जाकर मूर्ति पूजा करने को मैं भी नास्तिकता मानता हूँ क्योंकि असली ईश्वर तो सर्वव्यापक होने के कारण हमारी आत्मा में ही निवास करता है। वाही उसको धन्यवाद कहा जा सकता है। आप नास्तिक तभी हैं जब आप कहें कि इस संसार को बनाने वाला व हमें व संसार के प्राणियों को जन्म देने वाले किसी ईश्वर नाम की सत्ता नहीं है। यह आपका अपना निजी अधिकार है और इसका फायदा व नुकसान व्यक्ति को स्वयं को होना है। मेरा तो जो कर्तव्य है मैं उसे करता हूँ। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, हमने आपकी भावना को बिलकुल सही समझा है. इसलिए हमने लिखा है, कि गिरधारीलाल जीते-जागते भगवानों की सेवा-सहायता में लगे रहते थे, इसलिए हमारे विचार से वे सच्चे अर्थों में आस्तिक थे. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से शुक्रिया
प्रिय मनमोहन भाई जी, गिरधारीलाल जीते-जागते भगवानों की सेवा-सहायता में लगे रहते थे, इसलिए हमारे विचार से वे सच्चे अर्थों में आस्तिक थे. यह कहानी हमारी देखी-भाली है. प्रतिक्रिया के लिए हृदय से शुक्रिया