मुक्तक : सजाता हूँ मैं कविता को
सहज मन चेतना बन कर सुनाता हूँ मैं कविता को
भ्रमर गुन्जित सज़ा आँगन दिखाता हूँ मैं कविता को
नवल परिधान मे सजकर, लगी कविता लुभाने जब
क़लम रुकती नहीं मंज़िल सजाता हूँ मैं कविता को
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
सहज मन चेतना बन कर सुनाता हूँ मैं कविता को
भ्रमर गुन्जित सज़ा आँगन दिखाता हूँ मैं कविता को
नवल परिधान मे सजकर, लगी कविता लुभाने जब
क़लम रुकती नहीं मंज़िल सजाता हूँ मैं कविता को
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
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प्रिय राजकिशोर भाई जी,
सहज मन से कविता को सजाते रहिए,
इस तरह अपने मन की बीन को बजाते रहिए.
आदरणीया बहन जी प्रणाम हौसला अफजाई के लिए आभार
कविता से लगन ,,,,,,,,,,,,,,,,
आदरणीय भामरा साहब सप्रेम नमस्ते आपके आत्मीय स्नेह के लिए तहेदिल से आभार आपकी प्रतिक्रिया पाकर मेरी रचना सार्थक हुई