कविता : बूढ़ी औरत
वो बुढी औरत जो
दोनो ऑखो से अँधी
दिन रात फुटपाथ
पर पडी रहती
जैसे उसका कोई न हो
सिर्फ फुटपाथ ही
दिखता उसका सहारा
जो भी कोई गुजरता
उसके सामने से
झट हाथ फैला मॉगती
कुछ खाने को
कुछ लोग खाने को देते तो
कुछ लोग इनकार करते हुये
निकल पडते
हॉ वो मासुम बच्चा
जैसे ही उसके सामने से गुजरा
उस औरत को देख
थोडा सहम सा गया
फिर धीरे से
उस औरत के पास जा बोला
मॉ क्यो पडी रहती हो यहॉ
क्या घर नही तुम्हारे
या कोई बच्चे नही सयाने
यदि नही है कोई तो
चलो हमारे घर
मेरी भी कोई मॉ नही
घर पर पडे रहते है अकेले
ऐसा बोली सुन उस बच्चा का
औरत की ऑखे भर आयी
जिसने अपनी मॉ को देखा नही
उसे ऐसा संस्कार दिया किसने
शायद उसकी मॉ नही
इसलिये करना सिख गया
सभी मॉ ओ का इज्जत|
— निवेदिता चतुर्वेदी
निवेदिता जी सुन्दर कविता के लिए बधाई , वाकई मे जो कुछ भी हमें आसानी से या विरासत मे मिल जाता है उसकी कदर नहीं करते, आओ हम जो है उसकी कदर करें
धन्यबाद