ग़ज़ल
बेशक वो आइने में संवरती जरूर है ।
पर रिन्द मैकदों में बहकती जरूर है ।।
हुश्नो शबाब में है अदाओं का सिलसिला ।
बनके कवल फिजां में महकती जरूर है ।।
आने लगी है याद कोई मुद्द्तों के बाद ।
शायद वो तिश्नगी में सिसकती जरूर है ।।
शिकवे शिकायतों में गुजारी तमाम रात ।
ज़ज़्बात बेरुखी में छलकती जरूर है ।।
कैसे भुला दूँ हुश्न के हर इंतकाम को ।
वो बात मेरे दिल में ठहरती जरूर है ।।
सहमे शजर की शाख मुनासिब कहाँ उसे ।
बुलबुल नयी हवा में चहकती जरूर है ।।
है मुन्तजिर वो सिम्त मुहब्बत के दरमियाँ ।
बेख़ौफ़ जफ़ाओं में निकलती जरूर है ।।
परदों में रख तू बात है दीवार बेवफा ।
कुछ बात जमाने में सुलगती जरूर है ।।
परवाने शबे वस्ल में कुरबान हो गए ।
इक आरजू शमा में मचलती जरूर है ।।
इतना गुमां न कर कभी मिट्टी के ज़ार पर ।
हर शय तो जिंदगी में बिछड़ती जरूर है ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी