धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

संसार के दिवंगत महापुरुषों के वर्तमान निवास की स्थिति पर विचार

ओ३म्

 

सृष्टि के आरम्भ से आज तक संसार में सहस्रों व इससे कहीं अधिक महापुरुष, धर्म प्रचारक-संस्थापक, ऋषि-मुनि आदि हुए हैं।  संसार में जिसने भी मातृ शक्ति से जन्म लिया है, उसकी मृत्यु भी जीवन के 25 से लेकर 100 या 200 वर्षों की आयु के बीच अवश्य हुई है। मृत्यु कारण वृद्धावस्था, रोग और बलिदान हो सकता है। वेद, सत्यार्थप्रकाश और गीता आदि ग्रन्थों के अनुसार जो जन्म लेता और मरता है वह निश्चय ही असंख्य जीवात्माओं में से एक जीवात्मा ही होता है। विश्व व ब्रह्माण्ड में केवल ईश्वर ही एक ऐसी सत्ता है जिसका कभी जन्म नहीं हुआ, वह अजन्मा, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविकारी, अमर व अविनाशी है। इसका एक कारण यह भी है ईश्वर ही संसार के सभी मनुष्यों व प्राणियों का माता-पिता है, आदि कारण होने से उसका अपना माता व पिता कोई नहीं है। सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर को जन्म लेने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि वह अपने समस्त काम, सृष्टि की रचना और उसका पालन आदि, बिना किसी की सहायता के अकेला ही कर सकता है। सर्वशक्तिमान और आनन्दस्वरुप होने के कारण उसे किसी शिष्य, भक्त, उपासक, सेवक, साथी, सहयोगी, सन्देशवाहक व पुत्र-पुत्री की आवश्यकता नहीं है। जीवात्मा को अल्पज्ञ, चेतन, एकदेशी, ससीम, कर्म-फल व्यवस्था में बंघे होने व अन्य अनेक कारणों से मनुष्य आदि योनियों में ईश्वर से जन्म मिलता है। यदि ईश्वर ऐसा न करता तो जीव एक प्रकार की मूर्छित अवस्था में रहते जैसी उसकी अवस्था जन्म से पूर्व व पूर्व जन्म में मृत्यु के बाद जन्म से पूर्व होती है। जीवात्मा के जन्म व मृत्यु का कारण उसके पूर्व जन्म-जन्मान्तर के कर्म व उनके अवशिष्ट भोग आदि होते हैं। इन भोगों वा प्रारब्ध के कारण ही उसका मनुष्य व नानायोनियों में जन्म होता है। मनुष्य जन्म में जहां जीवात्मा अपने पूर्व व क्रियमाण कर्मों का फल भोगता है वहीं वह दुःखों की निवृत्ति व सुखों की प्राप्ति के लिए नये कर्म भी करता है। दुःखों की सर्वथा निवृत्ति ही जीवात्मा का मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य को जानकर उसे दुःखों की निवृत्ति के साधनों पर विचार करना होता है। मनुष्य की बुद्धि स्वतन्त्र रूप से अर्थात् बिना अन्य किसी की सहायता से दुःखों की निवृत्ति के साधनों को जानने में कृतकार्य नहीं होती। इसके लिए उसे किसी बहुत उच्च कोटि की प्रज्ञा की आवश्यकता होती है जो कि संसार में प्रथम ईश्वर है उसके बाद ईश्वर के सच्चे उपासक उसके वेद ज्ञान के अध्येता ज्ञानी ऋषि मुनि आदि होते हैं। अतः दुःखों से निवृत्ति जन्म मरण से मुक्ति वेद ऋषिमुनियों के साहित्य को पढ़कर इनके उपदेश सुनकर, ईश्वरजीवात्मा प्रकृति के सत्य स्वरुप को जानकर, यथोचित साधनों का उपयोग करके ही हो सकती है। जिस प्रकार एक स्थान से किसी निश्चित स्थान पर पहुंचने के लिए पद-यात्रा, बाइसाइकिल, स्कूटर व वाहनों आदि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार से मृत्यु से पार जाने वा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए ईश्वरीय ज्ञान वेद व उसके अनुरुप वेदाध्ययन, स्वाध्याय, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, योग, ध्यान, यज्ञ, परोपकार, दान व सेवा आदि साधनों को अपनाकर दुःखों से निवृत व जीवन-मुक्त हुआ जा सकता है। ऐसा करके हम अपने संचित कर्मों व प्रारब्ध का भोग कर व नये श्रेष्ठ कर्मों को करके मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

 

अतीत में हुए पृथिवी लोक के हमारे सभी महापुरुष, ऋषि-मुनि, विद्वान, धर्म प्रचारक, धर्म-मत-पन्थ-सम्प्रदाय-संस्थापक, योगी, ध्यानी आदि सभी जीवात्मा थे जिन्हें ईश्वर ने उनके पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जन्म दिया था। सभी जन्मधारी महापुरुषों ने उन्हें सुलभ अध्ययन की सुविधाओं का उपयोग कर अपने ज्ञान में वृद्धि करने का प्रयास किया था। उन्होंने अपना जीवनयापन करने के साथ समाज के अन्य लोगों का अपनी विद्या, मति व विवेक के अनुसार मार्गदर्शन किया। उनकी कुछ व बहुत सी बातें अच्छी थी व उनमें जीवात्मा के गुणों अल्पज्ञता, लोभ, मोह, राग, द्वेष, लोकैषणा, वित्तैषणा व पुत्रैषणा आदि के कारण कुछ न्यूनतायें भी थी वा रहीं होंगी। यह सम्भव है कि किसी में बुराईयां न हों या बहुत कम हों या किसी में अधिक हों। साधारण मनुष्य प्रायः कुछ चालाक व चतुर लोगों के बुरे मन्तव्यों को जान व समझ नहीं पाते और ठग लिए जाते हैं। ऐसे सभी, श्रेष्ठ, सज्जन व कुछ चालाक प्रकृति के मनुष्यों ने धर्म प्रचार किया, मत-पन्थ-सम्प्रदायों की स्थापनायें कीं और रोगी व वृद्ध होकर संसार से प्रयाण किया। आज उनके द्वारा व उनके नाम पर उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित धर्म-मत-पन्थ-सम्प्रदाय आदि संस्थायें फल फूल रही हैं। मत व पन्थ की स्थापना ऐसे कार्य हैं जहां किसी को कोई पूंजी निवेश आदि करना नहीं होता। उन्हें प्रायः अपने भोलेभाले अविवेकी अनुयायिायें को एकत्रित कर कुछ बातें प्रवचन व उपदेश रूप में कहनी होती हैं। इससे उन पर धन की वर्षा होने के साथ उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि होनी आरम्भ हो जाती है। उन्हें बताया जाता है कि वे लोग गुरुजी को जो दान देंगे उससे उन्हें सुख प्राप्त होगा, उनकी समस्याओं का निर्वाण होगा, सन्तान की प्राप्ति होगी और परजन्म में सदगति व सुख प्राप्त होगा। यह व्यवयहार ऐसे हैं कि जैसे ये लोग ईश्वर के एजेण्ड हों जिन्हें उसने इस काम पर नियुक्त कर रखा है। भोलेभाले अज्ञानी लोग ईश्वर व जीवात्मा आदि के ज्ञान तथा ईश्वरोपासना के विषय में किसी न किसी व्यक्ति को अपना गुरु बना लेते हैं और उनके मत व सम्प्रदाय के जाल में फंस ही जाते हैं जिससे गुरुओं की मौज हो जाती है। इसके बाद उन गुरुओं के अनुयायियों की संतानें भी उस मत व उसके उत्तराधिकारी आचार्यो के आदेशों, निर्देंशों व आज्ञाओं का पालन करते हैं और उन्हें दान दक्षिणा देकर धन में डूबा देते हैं। आज समाज में ऐसे अनेक धर्माचार्य देखे जा सकते हैं जिनके पास हजारो करोड़ की सम्पत्तियां इकट्ठी हो गई हैं जबकि उनका अतीत निर्धनता में व्यतीत हुआ। आदि ऋषि राजा मनु महाराज मन आत्मा के गुणों, इनकी प्रकृति वा प्रवृत्तियों आदि को यथार्थ रूप में जानने थे। वह कह गये हैं कि अर्थ काम में आसक्त वा लिप्त मनुष्यों को धर्म का ज्ञान नहीं होता। आजकल के अधिकांश तथाकथित साधुसन्त, धर्म गुरु उनके अन्घभक्त अनुयायी इस सिद्धान्त में सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार से सद्कर्म न होने के कारण सभी लोभी गुरु व चेलों की सदगति तो दूर की बात है, परजन्म में अधोगति व अवनति ही होती है, ऐसा वैदिक व दर्शनों के ज्ञान के आधार पर अनुमान होता है।

 

सृष्टि के आरम से अब तक जितने भी महापुरुषों, धर्म प्रचारकों, धर्म गुरुओं, संस्थापकों व आचर्यों का शरीर पात हुआ, वह सृष्टिकर्ता ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार या तो उच्च व श्रेष्ठ योनि में गये या फिर अधोगति को प्राप्त हुए। वेद और वैदिक दर्शन के अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि पूर्व के अधिकांश महापुरुष आज भी जन्म मरण के चक्र में फंसे हुए होंगे, इनमें कुछ उच्च व श्रेष्ठ मनुष्य योनि में हो सकते हैं व अन्य पशु-पक्षी आदि असंख्य निम्न योनियों में। हम संसार में जितने भी प्राणी देख रहें हैं, उन सभी थलचर, नभचर व जलचरों में, हमारे पूर्व हो चुके महापुरुष व युगपुरुष अपने पूर्व व बाद के जन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं। यह क्रम जारी है और प्रलयकाल को छोड़कर हमेशा जारी रहेगा। जन्म मरण के चक्र से मुक्ति तो केवल उन्हीं जीवात्माओं को मिलती है जिन्होंने अपने पूर्व व वर्तमान जन्म के सभी बुरे कर्मों का फल भोग लिया हो। साथ हि उन्होंने इस जन्म व पूर्वजन्म में वेद विद्या प्राप्त कर योग साधना की हो, सदधर्म का पूर्ण निष्ठा से पालन किया, ईश्वर का साक्षात्कार किया हो और सभी एषणाओं से मुक्त होकर निष्पक्ष भाव से मानवता का कल्याण किया हो। ऐसे लोग संसार में बहुत कम हुए हैं। महाभारत काल के बाद तो ऐसे लोग नाम मात्र के ही हुए हैं व हुए होंगे जिनकी मुक्ति का अनुमान कर सकें। अतः अपवादों को छोड़कर पूर्व के सभी महापुरुषों की जीवात्मायें जन्म-मरण के चक्र में आबद्ध हैं। इस स्थिति को प्रत्येक विचारशील मनुष्य को, मत-सम्प्रदायों की मान्यताओं से ऊपर उठकर, जानना व समझना चाहिये और किसी एक मत व सम्प्रदाय पर विश्वास न कर सत्य की खोज करनी चाहिये। उन्हें प्राप्त हुए निर्विवाद सत्य को स्वीकार व असत्य को अस्वीकार करना चाहिये। ऐसा करके, अर्थात् अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करके एवं तदनुसार आचरण करके, मनुष्य अपने जीवन में यश व कीर्ति को बढ़ा सकते हैं। यदि किसी कारण से उसे यश व कीर्ति प्राप्त न भी हो, तो यह इसलिए उपेक्षीय है कि सर्वाव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर तो प्रत्येक जीवात्मा के प्रत्येक कर्म को जानता ही है, वह उसे मृत्योत्तर जीवन में इस जन्म के कर्मों का उचित लाभ अवश्यमेव देगा।  यह भी लिख दें कि जिस प्रकार हमें अपने पूर्वजन्मों के कार्यों व स्थिति का स्मरण नहीं है वही स्थिति हमारे पूर्व के सभी महापुरुषों की वर्तमान समय में होगी। उन्हें स्मरण नहीं होगा कि वह कभी महापुरुष रहे हैं और उनके नाम पर अमुक-अमुक मत, धर्म व सम्प्रदाय चल रहे हैं। वैदिक सिद्धान्तों से यह भी पुष्ट होता है कि हमारे पूर्व के अनन्त जन्मों में हम अनेक व सभी प्राणी योनियों में रहने के साथ कभी राजा, कभी महापुरुष, कभी योगी, ऋषि-मुनि होने के साथ निकृष्ट कर्मों के कर्ता भी रहे हैं। यह बात हम सबके लिए ध्याने देने योग्य है।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “संसार के दिवंगत महापुरुषों के वर्तमान निवास की स्थिति पर विचार

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, दुःखों से निवृत्ति व जन्म मरण से मुक्ति वेद व ऋषि–मुनियों के साहित्य को पढ़कर व इनके उपदेश सुनकर, ईश्वर–जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जानकर, यथोचित साधनों का उपयोग करके ही हो सकती है. अति सुंदर व सार्थक आलेख के लिए आभार.

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। आपके सुंदर विचारों से अभिभूत हूँ। सादर।

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