बस एक कतरा
पलकों की हदों को तोड़ कर, दामन पे आ गिरा
बस एक कतरा मेरे सब्र की, तौहीन कर गया
ज़माने को दिखाया था, मैंने मुस्कुराता रूप
ये झूठा नकाब जाने कब, चेहरे से गिर गया
लाख समझाया दिल को, महफ़िल में साथ देना
उन्हें देखकर ये जालिम, क्यों फिर से फिसल गया
अब क्या कहूं कि यह ज़िन्दगी, गुजरेगी किस तरह
जब सैलाब आंसूओं का, अपनी हद से गुज़र गया
दिल मे छुपा के दर्द मै हँसता था सबके साथ
किसी ने न रखा अाज मेरे कांधे पे अपना हाथ
जालिम है यह दुनिया निभाती झूठे सब रिवाज़
कब होगा मे्रे दिल मे भी खुशियों का घर अाबाद
— जय प्रकाश भाटिया