लघुकथा

लघुकथा : ढाढ़स

लैपटाप बेटी के हाथों में देख माता -पिता प्रसन्न थे हो भी क्यों न आखिर चीफ़ मिनिस्टर साहब से जो मिला था | उनकी बेटी पुरे गाँव में अकेली प्रतिभाशाली छात्रों में चुनी गयी थी |
पूरा कुनबा लैपटाप के डिब्बों में कैद तस्वीरें देखने बैठ गया |
“बिट्टी इ सब का हैं ? लाल-पीला |” माँ पहली बार रंगबिरंगे भोजन को देख पूछ बैठी |
“अम्मा, ये लजीज पकवान हैं | बड़े बड़े होटलों में ऐसे ही पकवान परोसे जाते हैं और घरो में भी ऐसे ही तरह तरह का भोजन करते हैं लोग |”
“और दाल रोटी ?”
“अम्मा, दाल रोटी तो बस हम गरीबों का भोजन हैं| अमीर तो शाही-पनीर , पनीर टिक्का , लच्छेदार पराठा आदि खाते हैं |
पीछे स्कूल जाने के लिय तैयार खड़ा जीतू तपाक से बोला – “दीदी , मुझे भी खाना हैं यह !!”
“जितुवा तू फिर चिपक गवा |” अम्मा गुस्सा होती हुई बोली
” अरे परवतिया के बाबू इसको सकूल छोड़ आओ, देर भई तो मास्टर भगा देंगा |”
जीतू रोते हुए बोला- “मुझे नहीं पढ़ना , दीदी के साथ लैपटाप पर पिक्चर देखना है|”
“अरे बाबू, पढ़ेगा नहीं तो मेरे जैसे ये लैपटाप कैसे पायेगा | तेजतर्रार छात्र को सरकार लैपटाप देती हैं कमजोर को थोड़े | और मुझे भी तो पढ़ना हैं न |”
जूते पहनाते हुय पार्वती बोली “और कल खाना हैं न रंगबिरंगा पकवान | आज ही बीबी जी कहीं थी, कल किटी हैं जल्दी आ जाना | किटी में खूब बचता हैं बढ़िया-बढ़िया पकवान | वो सब तेरे लिय लेती आऊँगी |” सुन के जीतू के साथ- साथ बाबा के मुहं में भी पानी आ गया | सामने आई नमक रोटी की थाली ठेल चल दिए |

— सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

2 thoughts on “लघुकथा : ढाढ़स

  • कहानी अछि लगी ,मन को ढाढ़स दे कर ही आगे की जिंदगी चलती है, वरना आगे बड़ना मुश्किल हो जाता है .

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