ग़ज़ल : ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं
ख़ुशबुओं के बंद सब बाज़ार हैं
बिक रहे चहुं ओर केवल खार हैं
पिस रही कदमों तले इंसानियत
शीर्ष सजते पाशविक व्यवहार हैं
वक्र रेखाओं से हैं सहमी सरल
उलझनों में ज्यामितिक आकार हैं
हों भ्रमित ना, देखकर आकाश को
भूमि पर दम तोड़ते आधार हैं
क्या वे सब हकदार हैं सम्मान के
कंठ में जिनके पड़े गुल हार हैं?
बाँध लें पुल प्रेम का उनके लिए
जो खड़े नफ़रत लिए उस पार हैं
उन जड़ों पर बेअसर हैं विष सभी
सींचते जिनको अमिय-संस्कार हैं
ज़िंदगी को अर्थ दें, इस जन्म में
‘कल्पना’ केवल मिले दिन चार हैं
— कल्पना रामानी
अति सुंदर.
हार्दिक आभार लीला जी
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
हार्दिक आभार आ॰ सिंघल जी