गीत : कोई बात है जरूर !
मेंरी आँखों में नमी है कोई बात है ज़रूर
कोई सिसक सिसक के रोया तो है ज़रूर ।
मिलते नहीँ हैंअब मुझे सावन बहार के
हम ढूँढ़ते हैं कबसे मौसम वो प्यार के
कोई जुदा हुआ है कुछ खोया तो है ज़रूर ।
क्यो खत्म नहीँ होते हैं इन तन्हाई के दिन
क्यों दर्द बढाते हैं ये रुसवाइयों के दिन
लगता है दर्द का बीज कोई बोया तो है ज़रूर ।
अपनी वफा के सिलसिले दिल में गिले रहे
कुछ बोलना न आया ये लब ही सिले रहे
कुछ बोझ दिलपर है कुछ ढोया तो है ज़रूर ।
देदे मुझे मोहब्बत की कोई हँसी निशानी
लिख दे मेरे खुदाया चाहत की एक कहानी
मेंरा नसीब लिखनें में ही तू सोया तो है ज़रूर ।
आजकल जानिब वफाएँ याद आती हैं हमे
कैसे उनकी यादों का आइना हमसे थमें
उनकी चाहत का असर बिखरा तो है ज़रूर ।
— “जानिब”